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के जिनमंदिर में जाकर दर्शन-वंदन-पूजन द्वारा मैंने अखट पूण्य का उपार्जन किया। वर्तमान जीवन के इस पापोदय के बीच भी पुण्यबंध के निमित्त देकर कितने ही मंदिर बंधाने वाले नामी-अनामी आत्माओं के भार के नीचे मैं दबा हुआ हूँ। इससे मेरे मन में एक ऐसी भावना पैदा हुई कि, मैं भी ऐसा एक जिनमंदिर बनवाऊँ। जिसमें अनेक आत्माएँ उत्कृष्ट पुण्योपार्जन कर अपने भविष्य को उज्जवल बनाये। संक्षिप्त में अनेक आत्मा मेरे पुण्य बंध में सहायक बनी है तो अनेक आत्माओं के पुण्यबंध में मैं भी सहायक क्यों न बनूँ ? लेकिन आर्थिक स्थिति कभी सुधरी ही नहीं, अत: यह भावना मेरे मन में ही रह गई। इस समय मेरी आँखों में ये आँसू ना ही मौत के डर के है और ना ही किसी दु:ख के है। अपने शुभ भावों को मैं सफल नहीं बना सका और भविष्य में भी सफल नहीं बना पाऊँगा। इस दुःख के है यह आँसू। कहते-कहते लुणिग जोर से रो पड़ा। उसके शब्द आँखों में से अश्रु बनकर बहने लगे।
लुणिग के रोने का कारण जानकर उनके भाईयों की आँखों से भी अश्रुधारा बहने लगी। कुछ ही समय में स्वस्थ हो कर उन्होंने अपने आँसू पोंछ लिए। वस्तुपाल भाई की मनोदशा पहचान गए। आँखों में अश्रु, रूंधता हुआ स्वर, धीमी पड़ती हुई नाड़ी और टूटती हुई साँसे देखकर वस्तुपाल ने नज़दीक में रहे हुए पानी के घड़े में से थोड़ा पानी अपनी हथेली में लेकर लुणिग के समक्ष प्रतिज्ञा पूर्वक कहा कि- "भैया ! आज चाहे हमारे दिन अच्छे नहीं है, आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, परंतु देव-गुरु पर विश्वास रखकर आपके समक्ष हाथ में पानी लेकर मैं आपको वचन देता हूँ कि आपके नाम से आपका भाई आबू की धरती पर भव्य जिनालय बनवाकर ही रहेगा। मुझे चाहे मजदूर बनकर सिर पर मिट्टी के तगारे क्यों न उठाने पड़े ? जो भी करना पड़े वह करूँगा, परंतु आपकी मनोकामना पूरी करके ही रहूँगा।" शतपत्र कमल की तरह लुणिग के नेत्र पुलकित हो गए। लुणिग ने कहा - "भाई! तेरी भावना की हार्दिक अनुमोदना करता हूँ।"
___ “अरिहंते सरणं पवजामि" यह बोलते हुए लुणिग ने अपने प्राण छोड़ दिए। भाई रोने लगे। लुणिग के बिना उन्हें घर सूना-सूना लगने लगा। अन्तिम संस्कार की विधि निपटाकर सब घर लौटे। भाई को दिया गया वचन किस प्रकार जल्द से जल्द पूरा किया जा सके, उसकी योजना सबके मन में बनने लगी।
प्रभु के मन्दिर निर्माण की भावना क्षण-क्षण अशुभ कर्मों की निर्जरा एवं पुण्य का बंध करने वाली है। इस मन्दिर-मूर्ति निर्माण की भावना ने उनके भाग्य को ही पलट दिया। देखते ही देखते निर्धन गिने जाने वाले वस्तुपाल-तेजपाल धोलका नरेश के मंत्रीश्वर पद पर आसीन हुए। लक्ष्मीजी भी अपनी कृपा बरसाने लगी। एक दिन वस्तुपाल धन गाढ़ने के लिए खड्डा खोद रहे थे, तब उसमें से नया धन प्राप्त हुआ। आगे जाकर फिर दूसरी बार खड्डा खोदा तब पुन: एक सोने का चरू (घड़ा) मिला। थोड़े आगे जाकर तीसरी बार फिर से खड्डा खोदा तब पुन: धन मिला।