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मेरे सर्वस्व मेरे प्रभु परमात्मा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने में जिन्होंने कुछ भी कमी नहीं रखी, ऐसे महापुरुषों के जीवन संबंधित कुछ दृष्टांत यहाँ दिए गए है। इन दृष्टांतों को यदि स्थिरता पूर्वक पढ़ेंगे तो उन महापुरुषों के दिल की यह आवाज़ सुनाई देगी।
" हे मेरे सर्वस्व मेरे प्रिय प्रभु! इस विशाल सचराचर सृष्टि में कितनी ही अद्भुत वस्तुएँ, संपत्ति समृद्धि भरी हुई है। फिर भी अखिल विश्व में इस हृदय ने प्रभु आपकी पसंदगी की है। आप मुझे बहुत ही प्रिय हो। मैं आपको बहुत ही प्रेम करता हूँ और आपको प्रेम करने में मैं अवर्णनीय आनंद एवं परमशांति का अनुभव करता हूँ। मेरे जीवन का एक क्षण भी शासन के काम आ जाए तो मैं उसे अपना परम सौभाग्य मानूँगा। “हे प्रभु! आपकी सेवा, यही मेरा अहोभाग्य है, यही मेरा अतिशय पुण्य है" इन महापुरुषों की भावना जानकर अब हम भी इनके मार्ग पर चलकर अपना जीवन उज्जवल बनाये।
O) भाई हो तो ऐसा... . एक पिता के चार पुत्रों में से दो छोटे पुत्रों का नाम तो सारी दुनिया जानती है। परंतु बड़े पुत्र के नाम से तो करीब-करीब सभी अपरिचित ही है। उसमें से सबसे बड़े पुत्र का नाम लुणिग, दूसरा मालदेव, तीसरा वस्तुपाल, एवं चौथा तेजपाल था। कुछ ही दिनों के बाद अपने चारों पुत्रों को छोड़कर पिता सेठ आसराज स्वर्ग सिधारे। उनकी विदाई होने के साथ-साथ लक्ष्मी ने भी घर से विदाई ले ली। लुणिग बिमारी की चपेट में आ गया और उसका शरीर बुखार से तपने लगा। रोग-शय्या पर पड़े लुणिग की सेवा में तीनों भाई दिन-रात हाज़िर रहते। जंगल में से जड़ी-बूटी और औषधि लाकर उसका काढ़ा बनाकर भाई को पिलाते, परंतु सारे उपाय निष्फल गए। दिन प्रतिदिन उसका शरीर क्षीण होता गया। एक दिन उसकी नब्ज धीमी पड़ने लगी। जीवन-दीप बुझने लगा। उसी समय अचानक उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। भाई की आँखों में आँसू देखकर वस्तुपाल ने पूछा - बड़े भैया ! क्या हुआ? वस्तुपाल - आपकी आँखों में आँसू ? (लुणिग मौन रहा।) “क्या मौत से डर लग रहा है?" लुणिग - नहीं। वस्तुपाल - तो फिर यह आँसू किसलिए? लुणिग - भाई ! वर्षों से मेरे मन में रही भावना को मैं सफल न बना सका और ना ही भावी में बना सकूँगा। वस्तुपाल - भैया ! कैसी भावना ? . लुणिग - “आजीविका के लिए जिंदगी के कई वर्षों तक मैं गामो-गाम भटकता रहा हूँ। मैं जहाँ भी गया वहाँ
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