Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश [ क्षु० जिनेन्द्र वर्णों ] [ ५ ] पंकप्रभा - १. १. पंकप्रभा नरकका लक्षण जिसकी स.सि./३/१/२०३/८ पङ्कप्रभासहचरिता भूमि पङ्कप्रभा । प्रभा कीचड़के समान है, वह पंकप्रभा ( नाम चतुर्थ ) भूमि है । (ति. प./२/२१): (रा. वा. / ३ / २ / ३ / १५६ /१८); (ज. प / ११ / ११३) ★ आकार व अवस्थानादि -- दे० नरक / ५ | लोक / २ । D. इसके नामकी सार्थकता ति.प./२/२१ सक्करबालुव पंकाधूमतमातमतमं च समचरियं । जेण अवसेसाओ छप्yढवीओ वि गुणणामा | २१| रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पकप्रभा ये शेष छह पृथिवियाँ क्रमश शक्कर, बालु, कीचड़ की प्रभासे सहचरित हैं। इसलिए इनके भी उपर्युक्त नाम सार्थक है | २१| पंकभाग -ति, १/२/१,१९ खरपंकबहुलभागारयणप्पहाए पुढवीए पंकाजि य दोसदि एवं पंकबहुल भागो वि | १६ | [ बहुलभागे असुरराक्षसानामावासा । रा. ग.] - अधोलोकमें सबसे पहली रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके तीन भाग हैं- खरभाग, पकभाग व अम्बहुल भाग पंकबहुल भाग भी जो पंकसे परिपूर्ण देखा जाता है | १६ | इसमें असुरकुमारों और राक्षसोंके आवास स्थान है । (रा.वा./१/१/ ८/१६०/२०): (ज. प./११/११५-१२३) * लोकमें पंकभाग पृथिवीका अवस्थान --- दे० भवन / ४ | पंकावती - पूर्व विदेहकी एक विभंगा नदी । दे० लोक /५/८० पंचकल्याणक - दे० कल्याणक । पंचकल्याणकव्रत - दे० कल्याणकवत । पंचनद वर्तमान पंजाब ( म. पू. /प्र./ ४६ पं. पन्नालाल ) । पंचनमस्कार मंत्र माहात्म्य - आ० सिंहनन्दी (ई० श० १६) कृत एक कथा । पंचपोरियाव्रत - व्रतविधान सं . १२१ - भादो सुदी पाँच दिन जान, घर पच्चीस माँटे पकवान । भादो सुदी पंचमीको पचीस घरोंमें पकवान माँटे। (यह बस श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है ।) Jain Education International 5--दे० काल / ४ । पंचमकालपंचमीव्रत पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद शु० ५ को उपवास तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप । ( व्रतविधान सं./८५) (किशर्नासह क्रियाकोश) पंचमुष्ठी - शरीरके पाँच अंग । दे० - नमस्कार/१ में ध /८) । पंचवर्ण एक ग्रह । दे० - ग्रह । पंचविशतिकल्याणभावनाव्रत ह. पु. / ३४ / ११३ - ११६ पचीस कल्याण भावनाऍ है, उन्हे लक्ष्यक्र पचीस उपवास करना तथा उपवासके बाद पारणा करना, ग्रह पंचविशतिकन्याभावना है । ११३ | १. सम्यवश्व, २ विनय, ३. ज्ञान, ४ शील ५. सत्य, ६. श्रुत, ७, समिति, ८ एकान्त, ह. गुप्ति, १०. ध्यान, ११. शुक्लध्यान, १२. संक्लेशनिरोध, १३. इच्छानिरोध, १४ सवर, १५ प्रशस्तयोग, १६. संवेग, १७. करुणा, १८. उद्वेग, १६. भोगनिर्वेद, २०. संसारनिर्वेद, २१ भुक्तिवैराग्य; २२. मोक्ष, २३. मैत्री, २४. उपेक्षा और २५. प्रमोदभावना, ये पचीस कल्याण भावनाएँ हैं । ११४- ११६ । पंचविशतिका - दे० पद्मन न्दि पंचविशतिका । पंचशिखरी-पाँच कूटोंसे सहित होनेके कारण हिमवान् महाहिमवाद और निषधपर्वत पंचशिखरी नामसे प्रसिद्ध है। (ति, प./४/१६६२, १७३२, १७६७) पंचशिर - कुण्डलपर्वतस्थ वज्रप्रभकूटका स्वामी नगेन्द्रदेव । दे० लोक / ५११२ । पंचतज्ञानव्रत - एक उपवास एक पारणाक्रमसे १६८ उप पूरे करे । 'औ ह्रीं पञ्चश्रुतज्ञानाय नम:" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( तविधान संग्रह / ७२) (वर्धमान पु. / ...) पंखसंग्रह - (पं.सं./प्र.१४/ A. N. Up) दिगम्बर आम्नायमें पंचसंग्रहके नामसे उल्लिखित कई ग्रन्थ उपलब्ध है। सभी कर्म सिद्धान्त विषयक हैं। उन ग्रन्थोंकी तालिका इस प्रकार है -१, दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह - यह सबसे प्राचीन है। इसमें पाँच अधिकार हैं, १३२४ गाथाएँ है, और ५०० श्लोकप्रमाण गद्यभाग भी है। इस ग्रन्थके कर्ताका नाम व समय ज्ञात नहीं, फिर भी वि. श. ५-८ का अनुमान किया जाता है । (पं. सं./प्र.३६/A.N Up) २. श्वेताम्बर प्राकृत पंचसंग्रह - यह १००५ गाथा प्रमाण है । रचयिता ने स्वय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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