Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ पद्मलेश्या परघातनामकर्म वर दिया था (१७) । इसी वरके रूपमें बलि आदि मन्त्रियोने सात दिनका राज्य लेकर अकम्पनाचार्यादि सात सौ मुनियोपर उपसर्ग किया था ( २२)। पद्मलेश्या-दे० लेश्या। पद्मवान्-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र-दे० लोक/७ । २. विकृतवान् वक्षारका एक कूट-दे० लोक/७ । ३. पद्मवान् कूटका रक्षक देव । दे० लोक/७। पद्मसिंह-ध्यानविषयक ज्ञानसार ग्रन्थके रचयिता एक मुनि।। समय-वि.१०६६ (ई०१०२६) (त,अनु०/१०६ का भावार्थ प० युगलकिशोर) (ती०/३/२८८)। पद्मसन-१. म पु./५६/श्लोक पश्चिम धातकीखण्डमे रम्यकावती देशके महानगरका राजा था (२-३)। दीक्षित होकर ११ अगोका पारगामी हो गया। तथा तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर अन्तमे समाधिपूर्वक सहस्रार स्वर्ग में इन्द्रपद प्राप्त किया (८-१०)। यह विमलनाथ भगवानका पूर्वका दूसरा भव है-दे० विमलनाथ । २ पचस्तूपसघको गुर्वावलोके अनुसार (दे० इतिहास/२/१७) आप धवलाकार वीरसेन स्वामीके शिष्य थे। (म पु/प्र./३१/५०)। ३ पुन्नाटस घकी गुर्वावलोके अनुसार आप वीरवितके शिष्य तथा व्याघहस्तके गुरु थे।-दे० इतिहास/५/१८ । पद्महद-हिमवान् पर्वतस्थ एक ह्रद । जिसमेंसे गंगा, सिन्धु व रोहितास्या ये तीन नदियाँ निकलती है। श्रीदेवी इसमें निवास करती हैं-दे० लोक/३/81 पद्मांग-कालका एक प्रमाणविशेष-दे० गणित/I/११४ । पद्मा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक कुमारी देवी-दे० लोक/९/१३। पगाल-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका नगर-दे० विद्याधर । पद्मावत विद्य त्प्रभ गज़दन्तस्थ एक कूट-दे० लोक/५/४। पद्मावती-१. विदेहस्थ रम्य का क्षेत्रकी मुख्य नगरीदे० लोक५/२.२. म.पु.७३/श्लोक अपने पूर्वभव सर्पिणीकी पर्यायमें कमठके आँठवे उत्तर भव महीपाल द्वारा लक्कडके जलानेपर मारी गयी (१०१-१०३)। परन्तु पार्श्वनाथ भगवानके उपदेशसे शान्तभावपूर्वक मरण करनेसे पद्मावती बनी (११८-११६)। इसीने भगवान पार्श्वनाथका उपसर्ग निवारण किया था (१३६-१४१)। अत. यह पार्श्वनाथ भगवान की शासक यक्षिणी है-दे० यक्ष। पद्मावती कल्प-मक्लिषेण भट्टारक (ई. श १०कृत तान्त्रिक ग्रन्थ। पद्मासन-दे० आसन। पद्मोत्तर-१. भद्रशाल वनस्थ एक दिग्गजेन्द्र पर्वत-दे.लोक/१/३; २ कुण्डल पर्वतस्थ रजतप्रभ कूटका स्वामी नागेन्द्रदेव-दे.लोकश१२, ३. रुचक पर्वतके नन्द्यावर्त कूटपर रहनेवाला देव-दे०लोक/१३४.म पु./१८/श्लोक पुष्करार्धद्वीपके वत्सकावती देशमे रत्नपुर नगरका राजा था (२)। दीक्षित होकर ११ अंगोका पारगामी हो गया। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर आयुके अन्तमें संन्यासपूर्वक मरणकर महाशुक्र स्वर्गमें उत्पन्न हुआ (११-१३)। यह वासुपूज्य भगवान्का दूसरा पूर्वभव है-दे० वासुपूज्य। पनसा-भरतक्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/।। पन्नालाल-आप संघो गोत्री एक पण्डित थे। पं० सदासुखदासजीके आप शिष्य थे। रत्नचन्द्रजी वैद्य दूनीवालेके पुत्र थे । कृतियाँ१. राजवार्तिककी भाषावचनिका, २, उत्तरपुराणकी भाषावचनिकाः ३-२७००० श्लोकप्रमाण विद्वद्जन बोधक, ४. सरस्वती पूजा आदि। प० सदासुखदासजी (ई०१७६५-१८६७)के अनुसार आपका समय-ई० १७७०-१८४०आता है। (अर्थ प्रकाशिका/प्र.५॥ पं पन्नालाल ), (र.क. श्रा./प्र. २४/५० परमानन्द)। परपरा-१. व्यवहारनिश्चयका परम्परा कारण है। -दे० नय, धर्म आदि वह वह विषय । २. आचार्य परम्परा-दे० इतिहास/४; ३. आगम परम्परा-दे० इतिहास/६ । परंपरा बंध-दे०बंधा। परंपराश्रय हेत्वाभास-दे० अन्योन्याश्रय। परंपरोपनिधा-दे० श्रेणी। पर-रा. वा/२/३७/१/१४७/२९ परशब्दोऽयमनेकार्थवचन' । क्वचिद्वयवस्थाया वर्तते-यथा पूर्व' पर इति । क्वचिदन्यार्थे वर्तते-यथा परपुत्र' परभार्येति अन्यपुत्रोऽन्यभार्येति गम्यते । क्वचित्प्राधान्ये वर्तते-यथा परमियं कन्या अस्मिन्कुटुम्बे प्रधानमिति गम्यते। क्वचिदिष्टार्थे वर्तते-यथा परंघाम गत इष्टं धाम गत इत्यर्थः। रा. वा./३/६/७/१६७/१७ परोत्कृष्टेति पर्यायौ।७।-पर शब्दके अनेक अर्थ है जैसे-१, कही पर व्यवस्था अर्थमें वर्तता है जैसे-पहला, पिछला। २. कही पर भिन्न अर्थ में वर्तता है जैसे-'परपुत्र', 'परभार्या'। इससे 'अन्यका पुत्र', व 'अन्यकी स्त्री' ऐसा ज्ञान होता है । ३. कही पर प्राधान्य अर्थमे वर्तता है जैसे-इस कुटुम्बमें यह कन्या पर है। यहाँ 'प्रधान है' ऐसा ज्ञान होता है। ४ कहीं पर इष्ट अर्थ में वर्तता है जैसे-'परंधाम गत' अर्थात् अपने इष्ट स्थानपर गया ऐसा ज्ञान होता है । ५. पर और उत्कृष्ट ये पर्यायवाची नाम है। (प.प्र./ टी./१/२४/२६/८). स्या. म./४/१८/२७ परत्वं चान्यत्वं तच्चैकान्तभेदाविनाभावि । स्या. मं/२७/३०५/२७ परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति । परत्व शब्द एकान्तभेदका अविनाभावी है। इसका अर्थ अन्यपना होता है। 'पर'शब्द शत्रुशब्दका पर्यायवाची है। 4. ध /उ /३१७ स्वापूर्थि द्वयोरेव ग्राहक ज्ञानमेकश' ३६७। - ज्ञान युगपत स्व और अपूर्व अर्थात् पर दोनों ही अर्थोका ग्राहक है। परकृति-न्या. सू./टी/२/१/६३/१०१/४ अन्यकतृ कस्य व्याहतस्य विधेर्वाद. परकृति । हुत्वा वपामेवाग्रेऽभिधाग्यन्ति अथ पृषदाज्य तदुह चरकाध्वर्यव' पृषदाज्यमेवाग्रेऽभिधारयन्ति "अग्ने प्राणा' पृषदाउस्तोममित्येवमभिदधतीत्येवादि। -जो वाक्य मनुष्योके कर्मोमें परस्पर विरोध दिखावे उसे 'परकृति' कहते है। जैसे-कोई तो वपाको स वे में रखकर प्रणीता में डालते है और कोई घृतको र वासे से प्रणीतामें डालते है, और उनकी प्रशंसा करते है। परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त-दे० परिहारप्रायश्चित्त । परघातनामकर्म-स. सि./८/११/१/४ यन्निमित्त' परशस्त्रादेाघातस्तत्परघातनाम। -जिसके उदयसे परशस्त्रादिकका निमित्त पाकर व्याघात होता है, वह परघात नामकर्म है। (रा वा। ८/११/१४/५७८/३); (गो, क./जी, प्र./३३/२६/१६) ध,६/१,६-१,२८/५६/७ परेषां घात' परघात.। जस्स कम्मस्स उदएण परघाददू सरीरे पोग्गला णिप्फज्जति त कम्मं परघाद णाम । तं जहा-सप्पदाढासु विसं, विच्छियपुंछे परदुखहेउपोग्गलोवचओ, सिंह-वग्घच्छवलादिसु णहद ता, सि गिवच्चणाहीधत्तरादओ च परघादुप्पायया । = पर जीवोके घातको परघात कहते है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें परको घात करनेके कारणभूत पुद्गल निष्पन्न होते है, वह परघात नामकर्म कहलाता है। (ध./१३/५,५,१०१/३६४/१३) जैसे-सॉपकी दाढोमें विष, बिच्छूकी पूछमें पर दुखके कारणभूत पुद्गलोका संचय, सिंह, व्याघ्र और छवल ( शबल-चीता ) आदिमें (तीक्ष्ण ) नख और दन्त तथा सिगी, वत्स्यनाभि और धतूरा आदि विषैले वृक्ष परको दुख उत्पन्न करनेवाले है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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