Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 26
________________ परमात्मा परमात्मा - परमात्मा या ईश्वर प्रत्येक मानवका एक काल्पनिक मना हुआ है। वास्तव में ये दोनों शम् शुद्धात्माके लिए प्रयोग किये जाते है । वह शुद्धात्मा भी दो प्रकारसे जाना जाता है-एक कारण रूप तथा दूसरा कार्यरूप । कारण परमात्मा देश कालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्व है, जो मुक्त व संसारी तथा चोटी व मनुष्य सबमें अन्वय रूपसे पाया जाता है। और कार्य परमात्मा वह मुक्तात्मा है, जो पहले संसारी था, पीछे कर्म काट कर मुक्त हुआ । अत कारण परमात्मा अनादि व कार्य परमात्मा सादि होता है। एकेश्वरवादियों का सर्व व्यापक परमात्मा वास्तव में वह कारण परमात्मा है और अनेकेश्वरवादियोका कार्य परमात्मा । अतः दोनोमें कोई विरोध नही है । ईश्वरकर्ताबाद के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समन्वय किया जा सकता है। उपादान कारणकी अपेक्षा करनेपर सर्व विशेषों में अनुगताकार रूपसे पाया जानेसे 'कारण परमात्मा' जगतके सर्व कार्योंको करता है और निमित्तकारणको अपेक्षा करने पर मुक्तात्मा वीतरागी होनेके कारण किसी भी कार्यको नही करता है। जैन लोग अपने विभावोका कर्ता ईश्वरको नही मानते, परन्तु कर्मको मान लेते है। यहाँ उनमें व जैनों ईश्वर कस्में केवसा नाम मात्रका अन्तर रह जाता है। यदि कारण तत्त्वपर दृष्टि डाले तो सर्व विभाव स्वत टल जाये और वह स्वयं परमात्मा बन जाये । १. परमात्मा निर्देश १. परमात्मा सामान्यका लक्षण स. श./टी./६/२२५/१५ परमात्मा संसारिजीवेभ्य उत्कृष्ट आत्मा । = संसारी जीवोमें सबसे उत्कृष्ट आत्माको परमात्मा कहते है । - २. परमात्मा के दो भेद १. कार्य कारण परमात्मा नि सा/ता.वृ./७ निजकारणपरमात्माभावनोत्पत्नकार्यपरमात्मा स एव भगवाच अर्ह परमेश्वर' निज कारण परमात्माको भावना उत्पन्न कार्य परमात्मा, वही अर्हन्त परमेश्वर हैं। अर्थात् परमात्माके दो प्रकार है- कारण परमात्मा और कार्यपरमात्मा । २. सकल निकल परमात्मा का. अ./ / ११२ परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धाय । १६२ | - परमात्मा के दो भेद है- अरहन्त और सिद्ध । प्र.सं./टी./४/५ सयोग्यो गिगुणस्थानद्वये विवक्षितेकदेशशुद्धनमेन सिद्धसदृश परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात् परमात्मेति । =सयोगी और अयोगी हम दो गुणस्थान में विवक्षित एक देश शुद्ध नयकी अपेक्षा सिद्धके समान परमात्मा है, और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही। ३. कारण परमात्माका लक्षण नि. सा./मू./१००-१०० कारणपरमतत्वस्वरूपाख्यानमेतत्-जाइनर मरणरहियं परम कम्ममयं सुधं । शाणाद घटसहार्थ अवम विगासमच्छेय 1१०७ अब्बामाहमनिरियमगोमं पुण्णपाणिमुक्कं । पुणरागमण विरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं । १७८१ =कारण परमतत्त्व के स्वरूपका कथन है- ( परमात्म तत्त्व ) जन्म, जरा, मरण रहित, परम, आठकर्म रहित, शुद्ध, ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला, अक्षय अविनाशी और अच्छे है ११७७] तथा अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप रहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालंब है | Jain Education International १९ १. परमात्मा निर्देश सश./मू./३०-३१ सर्वेन्द्रियाणि संन्यास्तमितेनान्तरात्मा यक्षणं पश्यते भाति तत्तत्व परमात्मनः ॥३०॥ य परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थिति । = सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियोंको विषयोंमे प्रवृत्तिसे रोककर स्थित हुए अन्तकरणके द्वारा क्षणमात्र के लिए अनुभव करने वाले जीवोके जो चिदानन्दस्वरूप प्रतिभासित होता है, वही परमात्माका स्वरूप है |३०| जो परमात्मा है वही मै हूँ, तथा जो स्वानुभवगम्य मै हूँ वही परमात्मा है । इसलिए मै ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा मेरा कोई उपास्य नहीं ||३१| प. प्र./मू./१/२३ देहादेवति जो बस देउ अणा- अतु केवल जाण फुरसत सो परमप्पू भिंतु ॥ १३३ - जो व्यवहार नयसे देहरूपी देवालय में बसता है पर निश्चयसे देहसे भिन्न है, आराध्य देव स्वरूप है. अनादि अनन्त है, केवलज्ञान स्वरूप है, निःसन्देह वह अचलित पारिणामिक भाव ही परमात्मा है |३३| नि.सा./ता.३८ औदविकादिचतुर्ण भावान्तराणामगोचरत्वाद द्रव्यभाव नोकर्मोपाधिसमुपज नितविभावगुणपर्यायरहित', अनादिनिधनामुततीन्द्रियस्वभावशुद्ध सहजपरमपारिणामिकभावस्वभाव कर - णपरमात्मा ह्यात्मा । - औदयिक आदि चार भावान्तरोको अगोचर होनेसे को (कारण परमात्मा ) द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोर्म रूप उपाधि जति विभाष गुणपर्यायों रहित है, तथा अनादि अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाव वाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिक भाव जिसका स्वभाव है - ऐसा कारण परमात्मा वह वास्तव में 'आत्मा' है। ४. कार्य परमात्माका लक्षण मो. पा. सू./२ सम्मककनिको परमप्या मण्णए देवी ॥॥॥ धर्म कल कसे रहित आत्माको परमात्मा कहते है ॥५॥ सो नि. सासू./० णिस्सेसदीसरहिओ सणापरमविभवजुद परमदपा उच्च तब्बिवरीओ ण परमप्पा ॥७॥ - निःशेष दोषसे जो रहित है, और केवलज्ञानादि परम वैभवसे जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है उससे विपरीत परमात्मा नही है |७ प. प्र //१/१५-२५ अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म विमुक्के जेण । मेल्लिवि सलु वि दव्वु परु सो परु मुण हि मणेण । १५० केवल दंसण - णाणमउ केवल-२ त सुक्रख सहाउ। केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ |२४| एहि त सहिजो पनि देउ सो तहि वि सह परम पर जो तइलोयहं भेउ | २५॥ - जिसने अष्ट कमको नाश करके और सब देहादि पर पोंको छोडकर केवलज्ञानमयी आरमा पाया है, उसको शुद्ध मनसे परमात्मा जानो । १५१ जो केवलज्ञान, केवलदर्शनमयी है, जिसका केवल सुख स्वभाव है, जो अनन्त वीर्य वाला है, वही उत्कृष्ट रूपवाला सिद्ध परमात्मा है | २४| इन लक्षणों सहित, सबसे उत्कृष्ट, निःशरीरी व निराकार, देव जो परमात्मा सिद्ध है, जो तीन नोकका ध्येय है, वही इस लोके सिरपर विराजमान है ॥२३॥ नि.सा./ता.वृ./ ७,३८ सकल विमलकेवलबोधकेवलदृष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दायविभवसमृद्ध यस्लेवंविधत्रिकामनिरावरण नित्यानन्दे क स्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्य परमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वर || आत्मन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे. परद्रव्यपराङ्मुखस्य पञ्चेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा । सकलविमल ज्ञानदर्शन, परम-नीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभवसे समृद्ध हैं, ऐसे जो परमात्मा अर्थात् त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द - एक स्वरूप निज कारण परमात्माकी भावनासे उत्पन्न कार्य परमात्मा वही भगवान् अर्हन्त परमेश्वर है 101 सहज जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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