Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ परचतुष्टय परम * परघात प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान-दे. वह वह नाम । परचतुष्टय-दे० चतुष्टय । परचारित्र-दे० चारित्र/१ । परतन्त्रवाद १. मिथ्या एकान्तकी अपेक्षा श्वेताश्वतरोपनिषद्/१२ काल स्वभावो नियतिर्यदृच्छाभूतानि यानि पुरुषेति चित्तम् । सयोग एषा न त्वात्मभावादात्माप्यनीश सुखदुखहेतु।२। - आत्माको यह सुख व दुख स्वय भोगनेसे नहीं होते, अपितु काल, स्वभाव, नियति. यदृच्छा, पृथ्वी आदि चार भूत, योनिस्थान, पुरुष व चित्त इन नौ बातोके संयोगसे होता है, क्योंकि आत्मा दु ख-सुख भोगनेमें स्वतन्त्र नही है। २ सम्यगेकान्तको अपेक्षा प्र. सा (त. प्र/परि./नय नं० २६, ३४ अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्सस्कारसार्थक्यकारि ।२६। ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्त १३४. आत्मद्रव्य अस्वभावनयसे सस्कारको सार्थक करनेवाला है ( अर्थात आत्माको अस्वभावनयसे संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभावसे नोक नहीं होती, किन्तु सस्कार करके ) लुहारके द्वारा नोक निकाली गयी हो ऐसे पैने बाणकी भॉति ।२६। आत्मद्रव्य ईश्वरनयसे परतन्त्रता भोगनेवाला है, धायकी दुकानपर पिलाये जानेवाले राहगीरके बालककी भॉति। * उपादान कारणकी भी कथंचित् परतन्त्रता -दे० कारण/II/३। परत्वापरत्व-वै, द./७/२/२२/२५०/३ एकदिक्काभ्यामेककालाभ्यो सनिकृष्टविनकृष्टाभ्या परमपर च २१- परत्व और अपरत्व दो प्रकारसे होते है। एक देशसम्बन्धसे दूसरे कालसम्बन्धसे । ( स सि./३/२२/२६२/१०)। रा. वा./५/२२/२२/४८११२३ क्षेत्रप्रशसाकाल निमित्ते परत्वापरत्वे। तत्र क्षेत्रनिमित्ते तावदाकाशप्रदेशासपबहूत्वापेक्षे। एकस्यां दिशि महनाकाशप्रदेशानतीत्य स्थित पर', तत' अल्पानतीत्य स्थितोऽपरः । प्रशंसाकृते अहिसादिप्रशस्तगुणयोगात् परो धर्म:, तद्विपरीतोऽधर्मोऽपर, इति । कालहेतुके शतवर्ष पर, षोडशवर्षोऽपर इति। - १. परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी है जैसे-दूरवर्ती पदार्थ 'पर' और समीपवर्ती पदार्थ 'अपर' कहा जाता है। २ गुणकृत भी होते है जैसे अहिसा आदि प्रशस्तगुणोके कारण धर्म 'पर' और अधर्म 'अपर' कहा जाता है। ३. कालकृत भी होते है जैसे-सौ वर्षवाला वृद्ध 'पर' और सोलह वर्षका कुमार 'अपर' कहा जाता है। परद्रव्य-मो पा./मू १७ आदसहावादण्णं सश्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । त परदव्वं भणिय अस्तित्व सम्बदरसोहि ।१७- आत्म स्वभावसे अन्य जो कुछ सचित्त (स्त्री, पुत्रादिक) अचित्त (धन, धान्यादिक ) मिश्र ( आभूषण सहित मनुष्यादिक ) होता है, वह सर्व परद्रव्य है । ऐसा सर्वज्ञ भगवान्ने सत्यार्थ कहा है।१७. प.प्र./मू./९/११३ जे णियदव्ब भिण्णु जड से पर-दव्यु वियाणि । पुग्गलु धम्माधम्मु गहु कालु वि पंचमु जाणि १११३॥ प.प्र./टी./२/१०/२२७/२ रागाविभावकर्म-शानावरणादिव्यकर्म शरी रादिनोकर्म च बहिविषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते। प प्र./टी./२/११०/२२८/१४ अपध्यानपरिणाम एव परसंसर्गः।-जो आत्म पदार्थसे जुदा जडपदार्थ है, उसे परद्रव्य जानो। और वह परद्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और पाँचवॉ कालद्रव्य ये सब परद्रव्य जानो ।११३। अन्दरके विकार रागादि भावकम और बाहरके शरीरादि नोकर्म तथा मिथ्यात्व व रागादिसे परिणत असंयत जन भी परद्रव्य कहे जाते है ।१०। वास्तव मे अपध्यान रूप परिणाम ही परसंसर्ग (द्रव्य ) है ।११०॥ परनिमित्त-दे० निमित्त/१। परभविक प्रकृतियाँ-दे० प्रकृति अध/२। परम १. पारिणामिकभावके अर्थमें न च वृ./३४७-३५६ अस्थित्ताइसहावा सुसंठिया जत्थ सामणविसेसा । अवरुप्परमविरुद्धा तं णियतच्चं हवे परमं ।३५७। होऊण जत्थ णट्ठा होसंति पुणोऽवि जत्थपज्जाया। बटुंता वति हु तं णियतच्चं हवे परमं ।३१८ णासतो वि ण णट्टो उप्पण्णो णेव संभव जंतो। सतो तियालविसये तं णियतच्चं हवे परमं ।३५९ - जहाँ सामान्य और विशेषरूप अस्तित्वादि स्वभाव स्व ब पर की अपेक्षा विधि निषेध रूपसे अविरुद्ध स्थित रहते है, उसे निज परमतत्त्व या वस्तुका स्वभाव कहते है ।३५७। जहाँ पूर्वकी पर्याय नष्ट हो गयी है तथा भावी पर्याय उत्पन्न होवेगी. और वर्तमान पर्याय वर्त रही है, उसे परम निजतत्त्व कहते है ।३५८जो नष्ट होते हुए भी नष्ट नही होता और उत्पन्न होते हुए भी उत्पन्न नही होता, ऐसा त्रिकाल विषयक जीब परम निजतत्त्व है। आ. ५/६ पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभाव. । वस्तुमें पारि णामिक भावप्रधान होनेसे वह परमस्वभाव कहलाता है। नि.सा /ता वृ./११० पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभाव... स पञ्चम भाव' . उदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जित। अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम् इतरेषां चतुर्णा विभावानामपरमस्वर। -(भव्यको) पारिणामिक भावरूप स्वभाव होनेके कारण परमस्वभाव है। वह पंचमभाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारोसे रहित है। इस कारणसे इस एकको परमपना प्राप्त है, शेष चार विभावोंको अपरमपना है। २. शुद्धके अर्थमें पं. का./ता. वृ./१०४/१६/१६ परमानन्दज्ञानादिगुणाधारत्वात्परशम्बेन मोक्षोभण्यते। परम आनन्द तथा ज्ञानादि गुणोंका आधार होनेसे से 'पर' शब्दके द्वारा मोक्ष कहा जाता है। प.प्र./टी./१/१३/२१ परमो भावकमद्रव्यकर्म नोर्मरहितः। -परम अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित । द. सं./टी./४६/५/'परम' परमोपेक्षालक्षणं. 'शुद्धोपयोगाविनाभूतं परमं 'सम्माचारित' सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम् । -'परम' परम उपेक्षा लक्षणवाला (संसार, शरीर असंयमादिमें अनादर) तथा... शुबोपयोगका अविनाभूत उत्कृष्ट 'सम्मचारित्त' सम्यग्चारित्र जानना चाहिए। ३. ज्येष्ठ व उत्कृष्टके अर्थमें घ.१/४,१,३४४९/६ परमो ज्येष्ठ.। -परम शब्दका अर्थ ज्येष्ठ है। घ. १३/ ६/३२३/३ किं परमम् । असंखेज्जलोगमेत्तसंयमवियप्पा । -यहाँ (परमावधिके प्रकरणमें) परम शब्दसे असंख्यात लोकमात्र संयमके विकल्प अभीष्ट है। मो. पा./टी./६/३०८/१८ परा उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपलक्षिता मा प्रमाण यस्येति परम. अथवा परेषा भव्यप्राणिनी उपकारिणी मा लक्ष्मी बैनेन्द्र तिवादकोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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