Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ पद पद अर्थालाप अर्थपरिज्ञानका पद है । ....पद शब्दका निरुक्त्यर्थ है जो जाना जाय वह पद है। ३. अक्षर समूहकी अपेक्षा न्या. सू /मू./२/२/५६४१३७ ते विभक्त्यन्ता. पदम् ।। -वों के अन्तमें यथा शास्त्रानुसार विभक्ति होनेसे इनका नाम पद होता है। २. पदक भेद १. अर्थपदादिकी अपेक्षा क. पा १/१,१/७२/१०/१ पमाणपदं अत्थपदं मज्झिमपदं चेदि तिविहं पद होदि। प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यपद इस प्रकार वह तीन प्रकारका है। (ध./४,१,४५११६६/गा. ६); (ध.१३/५,५,४८/२६५/१३); (गो. जी./जी प्र./३३६/७३३/१) क पा. २/२-२२/१३४/१७/५ एत्थ पदं चउब्धिह, अत्थपदं, पमाणपदं, मज्झिमपदं, ववत्थापदं चेदि । = पद चार प्रकारका है-अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद और व्यवस्थापद। ध.१०/४,२,४.१/१८/८ पदं दुबिह-ववस्थापदं भेदपदमिदि । . उक्कस्साणुक्कस्स - जहण्णाजहण्ण-सादि-अणादिधुव-अद्धुत्र - ओज-जुम्म आम-विसिठ्ठ-णोमणोविसिटिउपदभेदेण एत्थ तेरस पदाणि। -- पद दो प्रकार है-व्यवस्था पद और भेदपद । . उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, धव, अधव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम, नो विशिष्ट पदके भेदसे यहाँ तेरह पद हैं। २. नाम उपक्रमकी अपेक्षा क. पा. १/१,१/चूर्णिसूत्र/१२३/३० णामं छठिवह। क.पा १/१.१/६२४/३१/१ एदस्स सुसस्स अस्थपरूवणं करिस्सामो। तं तहा-गोष्णपदे णोगोण्णपदे आदाणपदे पडिवखपवे अवचयपदे उवचयपदे चेदि । -नाम छह प्रकारका है। अब इस सूत्रके अर्थका कथन करते है। वह इस प्रकार है-गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अपचयपद और उपचय पद ये नामके छह भेद है। ध.१/१,१,१/७४/५ णामस्स दस द्वाणाणि भवति । तं जहा, गोण्णपदे गोगोग्णपदे आदाणपदे पडिवक्खपदे अणादियसिद्ध'तपदे पाधण्णपदे णामपदे पमाणपदे अवयवपदे संजोगपदे चेदि । ध. १/१,१.१/७/४ सोऽवयवो द्विविधः, उपचितोऽपचित इति । • स संयोगश्चतुर्विधो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंयोगभेदात् । = नाम उपक्रमके दस भेद है। ये इस प्रकार है-गौण्यपद, नोगौण्यषद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अनादिसिद्धान्तपद, प्राधान्यपद, नामपद, प्रमाणपद, अवयवपद जौर संयोगपद । अवयव (अवयवपद) दो प्रकारके होते है--उपचितावयव और अपचितावयव। तथा द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसयोग, कालसयोग और भाव संयोगके भेदसे संयोग चार प्रकारका है। (ध, १/४,१,४५/१३५१४) ३. बीजपदका लक्षण ध.६/४,१,४४/१२७/१ सक्खित्तसहरयणमणंतत्थावगमहेदुभदाणेगलिगसंगय बोजपद णाम । - सक्षिप्त शब्द रचनासे सहित अनन्त अर्थोके ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंले संयुक्त बीजपद कहलाता है। ४. अर्थ पदादिके लक्षण ह पु./१०/२३-२५ एकद्वित्रिचतु.पञ्चषट् सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्य द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् ॥२३॥ कोटयश्चैव चतुस्त्रिशत् तच्छतान्यपि षोडश । ज्यशीतिश्च पुनर्लक्षा शतान्यष्टौ च सप्ततिः ॥२४॥ अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तुपदे स्थितः । पुर्वाङ्गपदसख्यास्यान्मध्यमेन पदेन सा '२५ = इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ. और सात अक्षर तकका पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षर रूप प्रमाण पद होता है। और मध्यमपदमें (१६३४८३०७८८८) अक्षर होते है और अंग तथा पूर्वोके पदकी सख्या इसी मध्यम पदसे होती है ।२३-२५॥ ध. १३/१०५,४८/२६/१३ तत्त्थ जेत्तिएहि अत्थोषलद्धी होदि तमत्थपदं णाम । यथा दण्डेन शालिभ्यो गौ निवारय, त्वमग्निमानय इत्यादयः (गो. जी)] एदं च अणव ठ्ठिद, अणियअक्रवरेहितो अत्थुवलदिसणादो। ण चेदमसिद्ध,अ विष्णु, इ काम , क ब्रह्मा इच्चेवमादिसु एगेगक्खरादो चेव अत्थुवल भादो। अट्ठक्खरणिप्फणं पमाणपदं । एद च अवटिदं, णियदट्ठसखादो।-सोलससदचोतोसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाई। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥१८॥ एत्तियाणि अक्खराणि घेत्तूण एगं मज्झिमपदं होदि । एदं पि संजोगवरसखाए अवडिद, बुत्तपमाणादो अक्वरेहि व-िहाणीणमभावादो। = जितने पदोके द्वारा अर्थ ज्ञान होता है वह अर्थपद है। [ यथा 'गायको घेरि सुफेदको दंड करि' इसमें चार पद भये । ऐसे ही 'अग्निको ल्याओ' ऐ दो पद भये। यह अनवस्थित है, क्योंकि अनियत अक्षरों के द्वारा अर्थका ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि 'अ' का अर्थ विष्णु है, 'इ' का अर्थ काम है, और 'क' का अर्थ ब्रह्मा है; इस प्रकार इत्यादि स्थलोंपर एक एक अक्षरसे ही अर्थकी उपलब्धि होती है। आठ अक्षरसे निष्पन्न हुआ प्रमाणपद है। यह अवस्थित है, क्योंकि इसको आठ संख्या नियत है। सोलहसौ चौतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) इतने मध्यपदके वर्ण होते हैं ॥१८॥ इतने अक्षरोंको ग्रहण कर एक मध्यम पद होता है। यह भी संयोगी अक्षरोको संख्याकी अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि, उसे उक्त प्रमाणसे संख्याकी अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। (क. १११,१/७१/१०/२), (क. पा. २/२-२२/१३५१७/६), (गो. जी./जी. प्र./३३६/७३३/१) क. पा. २/२-२२/१३४/१७/८ जत्तिएण वक्तसमूहेण अहियारो समप्पदि तं ववत्थापदं सुवंतमिगत वा। -जितने वाक्योके समूहसे एक अधिकार समाप्त होता है उसे व्यवस्थापद कहते हैं । अथवा सुबन्त और मिगन्त पदको व्यवस्थापद कहते है। क.पा २/२,२२/६४७५/७ जहण्णुक्कस्सपदविसयणिच्छए विवदि पादेति त्ति पदणिक्खेवो। -जो जघन्य और उत्कृष्ट पद विषयक निश्चयमें ले जाता है उसे पदनिक्षेप कहते है। ५. गौण्यपदादिके लक्षण घ. १/१,१,१/७४/७ गुणानां भाको गौण्यम् । तद गौण्यं पदं स्थानमाश्रयो येषां नाम्ना तानि गौग्यपदानि । यथा, आदित्यस्य तपनो भास्कर इत्यादीनि नामानि । नोगौण्यपदं नाम गुणनिरपेक्षमनन्वर्थमिति यावत् । तद्यथा, चन्द्रस्वामी सूर्यस्वामी इन्द्रगोप इत्यादीनि नामानि । आदानपदं नाम आत्तद्रव्य निबन्धनम् ।" पूर्णकलश इत्येतदादानपदम् • अविधवेत्यादि । ..प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि आदान-प्रतिपक्षनिबन्धनत्वात। अनादिसिद्धान्तपदानि धर्मास्तिरधर्मास्तिरित्येवमादीनि। अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सिद्धान्त' स पदं स्थानं यस्य तदनादिसिद्धान्तपदम्। प्राधान्यपदानि आम्रवनं निम्बवनमित्यादीनि। बनान्त: सरस्वप्यन्येष्षविवक्षितवृक्षेषु विवक्षाकृतप्राधान्यचूतपिचुमन्दनिबन्धनत्वात् । नामपदं नाम गौडोऽन्धो द्रमिल इति गौअन्ध्रद्रमिलभाषानामधामत्वात् । प्रमाणपदानि शतं सहस्र द्रोण. खारी पल, तुला कर्षादीनि प्रमाणनाम्ना प्रमेयेषूपलम्भार ।"उपचितावयवनिमन्धनानि यथा गलगण्ड: शिलीपद' लम्बकर्ण इत्यादीनि नामानि । अवयवापचयनिमन्धनानि यथा, छिन्नकर्ण छिन्ननासिक इत्यादीनि नामानि ।" द्रव्यसंयोगपदानि, यथा, इभ्य गौथ दण्डी छत्री गर्भिणी इत्यादीनि द्रव्यसंयोगनिबन्धनत्वात तेषां । नासिपरश्वादयस्तेवामादानपदेऽन्तर्भावाव ।... जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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