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एक दिन पकड़कर सँभाल लिया। पर वह सँभले न सँभल पाती थी। साँस धोंकनी की तरह चलता था, आँख माथे में चढ़-चढ़ जाती थीं,
और भीतर सब अंजर-पंजर को तोड़ती आती हुई खाँसी कहीं जमे कम्बख्त कफ को तनिक भी उखाड़ कर अपने साथ न ला पाती थी। इससे खाँसी आती थी, और आती थी। मिनट-केमिनट होगये । मुझ पर क्या-क्या न बीत गया। कि अन्त में खाँसी के साथ मौत की गाँठ-सा थोड़ा-सा सफेद कफ टूट कर
आया, और माँ आँख मीच-कर मूर्छित हो पड़ीं। मैंने कपड़े से कफ पोंछा, और उन्हें चुपचाप खाट पर लिटा दिया ।
मैं झपट कर अपनी मेज पर आ गया, कार्ड खींचकर लिखा
"श्रीमन् ,
दिवाली कल की बीत गई । बार-बार लिखने की मेरी शक्ति कब वीत जाय, जानता नहीं..."
कि श्री-ने आकर कहा, “घी आज शाम तक हो जाय तो हो जाय । खुरच-खुरच कर खैर अाज तो कर लूंगी। कल के लिए बिल्कुल नहीं है।"
मैंने कहा, “घी ?"
उसने कहा, "और दूध-वाले का अब तीसरा महीना लग जायगा । उसका आदमी आया था।"
डाक्टर की पाँच रुपया फीस है, और रुपये का बारह छटाँक घी आता है, और बारह छटाँक घी दो दिन में लग जाता है, और तेरह पाने के बावन पैसे होते हैं। पाँच और दो सात होते हैं, और वही जेब में सात पैसे जरूर है, और दूध वाले का तीसरा महीना लग जायगा...