Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 225
________________ २०८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] मूळ से जगने पर साँप ने देखा कि उसके चारों ओर अन्धकार है । उसने टटोल कर यह भी देखा कि चारों ओर से वह बन्द है, मार्ग कहीं भी नहीं है। शरीर के जोर से उसने चेष्टा भी की कि किसी ओर मार्ग खुल कर उसे प्राप्त हो, किन्तु चारों ओर फण को टकाराकर और लौट-लौट आकर उसने प्रतीति पा ली कि नहीं, मागे रुद्ध ही है । ऊपर भी नीला आसमान नहीं है, वही काला अँधेरा है जो पार्श्व में है । और उसके चारों ओर जिस वस्तु का अवरोध है वह एकदम अपरिचित है, दृढ़ है । उस वस्तु के साथ उसका हेल-मेल का सम्बन्ध नहीं बनेगा, जाने किस निर्जीव पदार्थ की वह बनी है ! __झोली लेकर सँपेरा नगर में अपनी रोजी के लिए निकला। वह बीन बजाकर साँप का खेल दिखाएगा, और इस भाँति नाज, पैसा और रोटी पा लेगा । बच्चे साँप का खेल देखेंगे और अपनी अम्मा-चाची से रोटी लाकर सँपेरे की झोली में डाल देंगे । साँप को देखकर उन्हें बड़ा कुतूहल होगा । डर भी होगा, पर सँपेरे के रहते अपने को डर वह ज्यादा नहीं होने देंगे। कंकड़ी फेंककर उस साँप से वह छेड़-छाड़ भी कर लेंगे। हाँजी, उसे वे छू भी क्यों नहीं लेंगे । साँप का फण उन बालकों को बड़ा विचित्र मालूम होगा। चित्र में बने साँप के फण से जो उनमें आश्चर्य होता है उससे कहीं अधिक समाधानकारक आश्चर्य उन्हें उस सचमुच के साँप के फण को देखकर होगा । पर उन बालकों के लिए उस मदारी सपेरे के सामने के साँप के फण में भी कुछ वैसा ही निश्शंक, निरापद, उत्कंठित विस्मय का भाव होगा जैसा कागज पर बने हुए साँप के चित्र में होता है। जब ढंकना खुला, और सर्प को माथे के ऊपर प्रकाश का

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