Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 223
________________ २०६ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] विकट अरण्य के कलेजे में कहाँ से उतरकर कहाँ पहुँचने के लिए इस भाँति निश्शंक लपका जा रहा था। बालक के मन में तो क्रीड़ा के उल्लास के अतिरिक्त कुछ न था। किन्तु भागते में उसका पैर भुजंग की पूँछ पर पड़ गया। इस पर भुजंग ने फण उठाया और बालक दो डग भी न भर पाया था कि उसे डस लिया। ___उस सर्प के विष का प्रभाव, कि देखते-देखते बालक वहीं गिर गया । पलक मारते में वह ठण्डा भी हो गया । वेदना की कोई पुकार उसके मुँह से नहीं निकली । मानो हँसी-हँसी में वह लोट पड़ा हो । देव-बालक का मुख अब भी तनिक विकृत न हुआ था। ___साँप ने जब गिरे हुए बालक को देखा तब वह अवसन्न रह गया । उस बालक का सौन्दर्य साँप के मन को बर्थी-सा चुभने लगा। उस बालक के मुख पर अपने को दंश करने वाले के लिए भी कोई मैल अथवा किसी प्रकार की अभियोग की छाया नहीं दीख पड़ती थी । साँप मन-ही-मन अति दुःखी हुआ । वह बालक की समूची देह पर मानों पहरा देता हुआ गुजलक भरकर उसे घेर कर वहाँ बैठ गया। बैठा ही रहा । दिन भर हो गया, रात भर हो गई । दा दिन हुए, तीन हुए, चार हुए, लेकिन वह साँप बिना कुछ अपनी सुध लिये बालक के चारों ओर अपनी देह का कुण्डल डाले ही पड़ा रहा। अन्त में बालक की देह विकृत होने लगी। इस भूल के लिए शनैः-शनैः जब जगह ही न रही कि इस देह में बालक की आत्मा कहीं हो सकती है तब साँप वहाँ से चल दिया। उसने तब बड़े कातर भाव से प्रार्थना की, कि ओ मेरे परमात्मा ! मैं क्या करूँ ?

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