Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 228
________________ वह बेचारा २११ सौंदर्य में विलास ही है, आतंक नहीं रह गया है । साँप ने अपने उठे हुए फण को चारों ओर घुमाकर सब कुछ देखा । देखा, कि उसके अपने मन में क्रोध अनुपस्थित नहीं है; किन्तु तो भी इन समस्त मनुर्जी के चेहरे पर तो कुतूहल ही दिख रहा है । बालक तक भी घबराये नहीं दिखे । साँप ने क्रुद्ध आँखों से देखा । उसने क्षुब्ध सिसकारी छोड़ी। जीभें लपलपाती उसकी बाहर निकलीं, मानों काली तड़ित रेखाएँ हों । किन्तु इस सबसे, कोई बालक चाहे डरपा भी हो पर, लोगों के तो कुतूहल में ही वृद्धि हुई । वे अधिकाधिक तृप्ति और आनन्दित भाव से साँप के ये करतब देखते रहे । साँप के फण में जाने कितनी फैल जाने की शक्ति न थी । वह, फैलता ही गया । पार्श्वनाथ की मूर्ति के शीश पर छाये नागफरण-सा ही उस नाग का फण छा आया । वह फरण उठता भी गया । साँप के शेष शरीर में भी मानों चैतन्य लहरा आया। विद्युत् के जीवित तार की भाँति उसका शरीर किसी ज्वाला से भरा दीखने लगा । साँप ने स्फुलिंग - सी आँखों से चारों ओर देखा । किन्तु लोगों का कुतूहल ही बढ़कर रह गया । आतंक तो उनके समीप फटका भी नहीं । तब जोर से साँप ने अपना फण धरती पर देकर मारा । उससे आस-पास की मिट्टी उड़ गई और करण की नोक के नीचे गढ्ढा-सा पड़ गया । इस पर लोगों का घेरा अनायास ही एक डग पीछे हटा । पर साँप में उनकी दिलचस्पी ही बढ़ी, दहशत फिर भी उनमें तनिक न समाई । उस समय सँपेरे ने अपने स्थान से मानों साँप को पुचकारा ।

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