Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 226
________________ वह बेचारा २०६ आभास हुआ, तब वह उत्कण्ठा के साथ ऊपर की ओर फण उठाकर लपका । किन्तु पाया, सामने तो उसका उपकारी सँपेरा ही उसके आगे करके बीन बजा रहा है। इस पर वह साँप फरा हिला-हिलाकर अपनी कृतज्ञता और अपना विमोह जतलाने लगा । वह भूम-झूमकर बीन के बैन पीता हुआ अपने उपकारी के समक्ष फण खोले खड़ा रहा । सँपेरे ने ऐसी अवस्था में साँप को हाथ से टोकरी में से निकाल कर बाहर धरती पर छोड़ दिया । साँप ने देखा - यह तो उसको घेरे लोग के लोग जमा हैं । उनमें बालक भी हैं। यह बात साँप की समझ में नहीं आई। यह सब उससे क्या चाहते हैं ? वह तो स्वयं बड़ा हिंस्र जीव है । तब यह सब लोग उसको इतने पास से घेरे हुए निश्शंक भाव से उससे क्या प्रत्याशा रख कर खड़े हैं ? अनायास बाहर धरती पर आकर वह संकोचपूर्वक गिर गया । लिपटा हुआ सा, देह में ही अपना मुँह छिपाए वह लोगों के घेरे के बीच में पड़ा रहा । लोगों को उस सर्प की कान्तिमय चित्रित देह बहुत मनोरम जान पड़ी। ऐसा भारी साँप उन्होंने कब देखा होगा ? वही भयंकर वन का राजा उनके सामने यों मुँह दुबकाए पड़ा है, मानों यह उन मनुजों के लिए गौरव की बात थी । एक ने कहा, “मदारी ! इसे उठाओ ।" मदारी ने कहा, "बाबू ! यह नाग अभी नया है । सकुचाता है יין एक बच्चे ने कहा, "इसे चलाकर दिखाओ, मदारी !" मदारी ने कहा, "अच्छा बाबू !"

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