Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 219
________________ २०२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] बलाधिप ने कहा, "बाहर जाने में आपका अनिष्ट है।" किन्तु युवराज ने सुना अनसुना किया और हँसते हुए वह आगे बढ़ गए। ___ घूमते सशस्त्र सैनिकों को कहा, "कहो भाई, क्या बात है ? अच्छे तो हो ?" सुनकर सैनिकों ने युवराज को सैनिक प्रणाम किया। युवराज आगे बढ़े । सैनिकों ने कहा,"महाराज, इससे आगे न जाइए।" युवराज हँसते हुए बढ़ते आए, और उनमें से प्रमुख के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “वीरदेव, तुम्हें राज-रानी कब से याद करती हैं, आओ, उनसे भेंट करने चलोगे न ?” वीरदेव अप्रतिभ होकर अनायास युवराज के साथ हो लिए। उसके अधीनस्थ वहीं रह गए। रास्ते में युवराज ने वीरदेव से कहा, "देखो जी, मैं चाहता हूँ कि मैं तो छुट्टी पा जाऊँ और हम लोग कहीं अकेले जाकर रहें । तुम तो रानी को जानते हो। हमारे साथ रहोगे ?" इसी तरह युवराज अपने महलों में पहुंच गए और वीरदेव उनका अनुचर हो गया। वीरदेव के द्वारा नगर में बात प्रचारित हो गई कि महाराज नगर के बाहर मैदान में जनता के समक्ष भाषण देंगे। यह बात आग की तरह फैली और उसको दबाना सम्भव न हुआ। किन्तु अगले दिन प्रातःकाल सुन पड़ा कि महाराज बन्दी बनाकर यहाँ से पाँच मील दूर एक दुर्ग में भेज दिये गए हैं। इस पर जनता हक्की-बक्की होकर सब काम भूल गई। छोटी-मोटी टोलियों में इधर-उधर दिखाई देने लगी।

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