Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 211
________________ १९४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] युवराज अपने महलों में लौट आए और अपने कर्त्तव्य के बारे में सोचने लगे। सोच-विचार कर पहले माता के पास गए । सब परिस्थिति उन्हें बताकर उनसे पूछा कि ऐसे समय मुझे क्या करना चाहिए ? राज-माता ने कहा, "बेटा, अपने पिता को पा सको तो उनसे जाकर पूछो।" __ पिता को पाना कब सम्भव था ? तब युवराज ने अपनी सहधर्मिणी के समक्ष यह समस्या रक्खी । कहा, “सेनाधिपति मुझ से ज्येष्ठ हैं, राज-गुरु तो गुरु-तुल्य हैं ही। उन दोनों में परस्पर स्पर्धा और विग्रह है, और मेरे प्रति भी वह विरोधी हैं । पिता तो राजपाट के बन्धन में मुझे डाल गए, और स्वयं छुटकारा पा गए, किन्तु मुझे इसमें सुख नहीं है। यही ध्यान है कि पिता की यह धरोहर है, इसमें क्षति आई तो क्या यह मेरा दोष न होगा ? अब तुम बताओ, शुभे, मेरा क्या धर्म है ?" रानी ने उत्तर को प्रश्न में रख कर पूछा, "क्षत्रिय का क्या धर्म है ?" - युवराज ने कहा, "क्षत्रिय नहीं, मनुष्य के धर्म की बात पूछो । लेकिन वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ ?" रानी ने किंचित् रुष्ट होकर कहा, "धर्म पदार्थ नहीं है। इससे निरपेक्ष भाव से उसका विचार नहीं हो सकता। स्वधर्म रूप में ही वह सच है। सुनते हो, तुम राजा हो ?' राजपुत्र ने कहा, “पर शत्रु यहाँ कौन है, वल्लभे ? सेनाधिपति ने मुझे शिक्षा दी है। उनकी धारणा है कि मैं अनुभवहीन हूँ। केन्द्र में सेना का बल यदि क्षीण होगा तो प्रान्तों में विरोधी शक्तियाँ सिर उठा उठेगी; मेरे स्वभाव को देखते हुए उन्हें आश्वासन नहीं

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