Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 214
________________ काल-धर्म . १९७ युवराज ने कहा, "और उपाय न था, प्रिये ! किन्तु यह व्यतिरेक कुछ ही दिन के लिए है। अनन्तर गुरु चक्रधर और सेनापति खड्गसेन पर बन्धन नहीं रहेगा और श्राशा है वे फिर अपने स्थान पर आ जाएँगे।" __ किन्तु न खड्गसेन नगरी से बाहर हुए, न गुरु चक्रधर की प्रवृत्तियों पर मर्यादा डाली जा सकी। मन्त्रणा के टूटने पर दोनों ने अनुभव किया था कि युवराज चुप न बैठेंगे। अपने-अपने गुप्तचरों से दोनों ने यह भी जान लिया था कि युवराज रात में जाग रहे हैं, अन्तःपुर नहीं गए हैं। परिणाम यह हुआ कि एक ओर से राजाज्ञा प्रचारित हुई और दूसरी ओर से सेना और जनता की तरफ से विद्रोह की आवाज उठाई गई। भीतर ही भीतर गुरु चक्रधर और बलाधिप खड्गसेन मिल गये । इस प्रकार नगर में घमासान उपस्थित हुआ और तीन रोज तक अराजकता का राज रहा । कइयों की जानें गई। __ अन्त में चौथे रोज फिर मन्त्रणा हुई। फलस्वरूप युवराज, चक्रधर और खड्गसेन की सम्मिलित समिति ने शासनाधिकार ग्रहण किए। राजा युवराज हुए, किन्तु इस शर्त के साथ कि दो सदस्यों की सलाह के बिना वे कुछ नहीं कर सकते। इस प्रकार राजतन्त्र की समाप्ति हुई और लोकतन्त्र का प्रारम्भ हुधा । लोकमत के निर्माता और असंगठित जनता के नेता चक्रधर, शस्त्रनायक खड्गसेन और राजकुल-परम्परा के प्रतिनिधि युवराज इन तीनों तत्त्वों के समवेत के हाथ शासन-सूत्र आ रहा। __ इस तरह एक युग निकला। लेकिन काल-धर्म गतिशील है और सव में विकास होता है। शासन-संस्था भी अचल नहीं रह सकती । व्यक्ति से वर्ग में और वर्ग से विस्तृत लोकमत में शासन

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