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एक गो
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जाती । फिर भी जो तुम कहोगे, वह मैं सब कुछ मानूँगी ।" हीरासिंह ने विषाद-भरे स्वर में पूछा, “तो मैं
तुम्हारा क्या
हूँ?"
गौ ने कहा, “सो क्या मेरे कहने की बात है ? फिर शब्द मैं विशेष नहीं जानती । दुःख है, वही मेरे पास है। उससे जो शब्द बन सकते हैं, उन्हीं तक मेरी पहुँच है । आगे शब्दों में मेरी गति नहीं है । जो भाव मन में हैं, उसके लिए संज्ञा मेरे जुटाये जुटता नहीं । पशु जो मैं हूँ । संज्ञा तुम्हारे समाज की स्वीकृति के लिए जरूरी होती होगी; लेकिन, मैं तुम्हारे समाज की नहीं हूँ । मैं निरी गौ हूँ । तब मैं कह सकती हूँ कि तुम मेरे कोई हो, कोई न हो, दूध मेरा किसी और के प्रति नहीं बहेगा । इसमें मैं या तुम या कोई शायद कुछ भी नहीं कर सकेंगे । इस बात में मुझ पर मेरा भी बस कैसे चलेगा ? तुम जानते तो हो, मैं कितनी परबस हूँ ।" हीरासिंह गौ के कण्ठ से लिपटकर सुबकने लगा। बोला, " सुन्दरिया ! तो मैं क्या करूँ ?”
गो ने कम्पित वाणी में कहा, "मैं क्या कहूँ ? मैं क्या कहूँ ?” हीरासिंह ने कहा, "जो कहो, मैं वही करूँगा सुन्दरी ! रुपये का लेन-देन है; लेकिन, मेरी गौ, मैंने जान लिया कि उससे आगे भी कुछ है । शायद उससे आगे ही सब कुछ है। जो कहो वही करूँगा, मेरी सुन्दरिया !"
गौ ने कहा, "जो तुम से सुन रही हूँ, उसके आगे मेरी कुछ चाहना नहीं है । इतने में ही मेरी सारी कामनाएँ भर गई हैं। आगे तो तुम्हारी इच्छा है और मेरा तन है । मेरा विश्वास करो, मैं कुछ नहीं माँगती और मैं सब सह लूँगी।"
सुनकर हीरासिंह बहुत ही विह्वल हो आया। उसके आँसू रोके