Book Title: Jainagamo me Syadvada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana

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Page 7
________________ (y) एक मनुष्य आता है, और कहता है भाई। इतने में एक बालक दुकान के भीतर से निकलता है वह करता है - मामा जी ।, मतलब यह है कोई उस व्यक्ति को चाचा, कोई ताऊ, कोई मामा और कोई पिता कहता है । प्रत्येक एक दूसरे की बात मानने को तैयार नहीं है। पुत्र कहता हूँ- ये तो पिता ही है । वृद्धा कहती हे- नहीं नहीं, यह तो पुत्र ही है । आदि आदि । सभी एकान्त-वादी बने हुए है-एक ही दृष्टि को लेकर तने हुए है। कोई अपना आग्रह छोडने को तैयार नहीं, कहिए इन का निर्णय फँसे हो ? कैसे उन के प्रशान्त मन को शान्त किया जाए ? प्रकान्त-वाद तो उस विवाद का मूल है, वह भला इम मे निर्णायक कैसे बन सकता है ? यहा अनेकान्त बाद का आश्रय करना होगा । अनेकान्तवाद इस विवाद को बडी सुन्दरता से निपटा देता है । देखिएअनेकान्त-वादी लड़के से कहता है-पुत्र । तुम ठीक कहते हो-वे तुम्हारे पिता है, किन्तु यह ध्यान रहे यह तुम्हारे छ न कि सब क्योंकि तुम एनके पुत्र हो । लडकी से कहना है - पुत्रि तुम भी ' गल्त नहीं करती हो, ये तुम्हारे चाचा है, क्योंकि ये तुमार पिता के छोटे भाई है, आदि आदि । 1 कान्तवाद कहता है-एक व्यक्ति में अक धर्म है. परन्तु भिष्ट्रियों से है, न कि केवल एक दृष्टि से विवाद तब होता है, जब एक ही दृष्टि का होता है, और अन्य दृष्टियो कानावर | देखा, नेपालवाद या अपूर्व निर्णय और देसी, एकान्न बाद की तोरन्यवहार-वाधरना स्याबाद के गृह जनाने यादवाडी

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