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(८) संसार मे जितने भी एकान्त-वादी विचारक है वे पदार्थ के एक २ अंश-धर्म को ही पूरा पदार्थ समझते हैं। इसी लिये उन का दूसरे धर्म-वालों से विवाद होता है, और कभी कभी तो वे इतने आग्रही होकर लडते-झगडते दिखाई पड़ते है कि मनुष्यता से भी हाथ धो बैठते है।
जिस समय राजगृहनगर के चौराहों पर पण्डितों के दल के दल घूमा करते थे, धर्म और सत्य के नाम पर कदाग्रह की पूजा हो रही थी, सभ्यता को मुह छिपाने के लिये भी जगह नहीं मिल रही थी, असल्यता विद्वत्ता के सिंहासन पर बैठी हुई थी, पण्डितों के दलों मे जो आपस मे अनेक तरह से भिड पड़ते थे, बोलाचाली के साथ २ हाथापाई मुक्कामुक्की तक की नौबत भी आजाती थी, ये पण्डित बड़ी तेजी से धर्म-रक्षा के लिये प्राण देने और लेने के लिये प्रतिक्षण तैयार रहते थे, कहीं नित्यवादी अनित्यवादी का मस्तक पत्थर मार कर इसलिये फोड देता कि जब पदार्थ अनित्य (स्थायी न रहने वाले) है तो मस्तक के फूटने से तुम्हारा क्या बिगडा ।, कहीं अनित्यवादी नित्यवादी के मस्तक को इसलिये फोड़ता कि तुम तो कहते हो पदार्थ नित्य (स्थायी ही रहने वाला) है तो फिर रोते क्यों हो ।, इस तरह से एक दूसरे को पछाड़ता, वह दशेनों का युग था, जहां जिस की टक्कर होती वहीं युद्ध का श्रीगणेश हो जाता, पण्डितों के इन भीषण धर्म-द्वन्द्वों से नगर में सर्वतोमखी आतंक छाया हुआ था, जनता धर्मतत्व से ऊब चुकी थी उस से घृणा करने लग गई थी। अब तो वहां किसी शान्ति के पथप्रदर्शक की प्रतीक्षा हो रही थी।