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पुत्रां को देखता हो । क्योंकि अनेकान्त-वादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव मे सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्त-वाद का अवलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है । माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है। यही धर्म-वाद है। माध्यस्थभाव रहने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है । अन्यथा क्रोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं।
स्याद्-वाद की अव्यावाध गति है । कहीं पर भी उस की गति स्तभित नहीं होती । जहा देखो वहीं स्याद. वाद आसन जमाए बैठा है। आचार्य-प्रवर श्री हेमचन्द्र सूरि तो यहा तक बोल उठे हैं कि वैयाकरणों के जो विकल्प, वाहुलक आदि हैं वे सब के सब स्याद्-वाद के ही आश्रित है। उन का कहना है कि *व्याकरण की सिद्धि ही स्याद्-वाद से होती है । स्याद्-वाद के विना व्याकरण का कोइ महत्त्व नहीं रहता।
तेन स्याद्वादमालब्य, सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशाविशेषेण य पश्यति स शास्त्रवित् ।। माध्यस्थमेव शस्त्रार्थो येन तच्चारु सिध्यति । स एव वर्मवाद स्यादन्यद्वालिशवल्गनम ।। माध्यस्थसहितं त्वेकपद-ज्ञानमपि प्रमा । शास्त्रकोटि. वृथैवान्या, तथा चोक्त महात्मना ।।
(अध्यात्मसार) * सिद्धि स्याद्वादात् । १।१२॥
(हैमत्रम)