Book Title: Jainagamo me Syadvada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana

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Page 6
________________ Q स्याद् वाद स्याद्-वाद की मौलिकता, महानता एवं उपादेयना को जानने से पूर्व उस के शाब्दिक अर्थ पर दृष्टिपात कर लेना उचित प्रतीत होता है। ___स्याद्-वाद के निर्माण करने वाले स्याद् और वाद ये दो पद हैं । स्यादु यह अव्ययपद है, जो *अनेकान्त अर्थ मा बोध कराता है, वाद का अर्थ है करन अर्थात् अनेकान्त द्वारा कथन, वस्तुतत्व का प्रतिपादन स्याद्-वाद है । इस अर्थ-विचारणा से स्याद्-वाद का दूसरा नाम अनेकान्तवाद भी होता है। एकान्त-वाद का अभाव अनेकान्नवाद है। एकान्त वाद में किसी भी पदार्थ पर भिन्न दृष्टियों से विचार नहीं किया जाता प्रत्युत एक पदार्थ को एक ही दृष्टि से देखा जाता है जब कि अनेकान्त-वाद प्रत्येक वस्तु का भिन्न २ दृष्टिकोणों से विचार करता है, देखता है, और कहता है। जैन-दर्शन अनेकान्त-वादी है । एकान्त-वाद उपे इष्ट नहीं है । एकान्त-वाद अपूर्ण है, सत्यता को पङ्ग बनाने वाला है और यह लोकव्यवहार का साधक न होकर वाधक बनता है। एकान्त-वाद की व्यवहार-वाधकता उदाहरण ले समझिए एक व्यक्ति दुकान पर बैठा है । एक ओर से एक बालक प्राता है, वह कहता है - पिता जी ,दूसरी ओर से एक बालिका आती है, वह कहती है-चाचा जी |, तीसरी ओर से एक वृद्धा आती है, वह कहती है-पुत्र ।, चौथी ओर से उस का समवयस्क ___*स्याद् इत्यव्ययम् अनकान्त- द्योतक, तत स्याद् वाद - अनेकान्त-वाद । (स्याद्-वाद-सजरी मे मल्लिषेणसूरि)

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