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जैन सिद्धान्त रौढिक नहीं वैज्ञानिक है और इसी कारण यह अत्यन्त गहन व गम्भीर है। तर्क इसकी कसौटी है और अनुभव इसका प्रमाण । इसकी साधारण से साधारण बातों में भी आचार्यों के सूक्ष्म आशय छिपे हुए हैं । इसलिए इस सिद्धान्त की गहनता जानने के लिए इसका विधिवत् शिक्षण अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षण के अभाव के कारण ही पाठकों व जिज्ञासुओं को जैन शास्त्रों के अभ्यास से वह लाभ नहीं हो पाता जो कि होना चाहिए, क्योंकि वे उनके ठीक-ठीक समझ में नहीं आते।
किसी भी विषय को पढ़ने व समझने के लिये उसके कुछ विशेष पारिभाषिक शब्दों का परिज्ञान अत्यन्त झावश्यक है, क्योंकि शब्द ही अन्तरंग के अभिप्राय व आशय प्रगट करने का एकमात्र साधन व माध्यम है। प्रस्तुत पुस्तक जन साहित्य में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का ही विशद भण्डार है इसलिए इसे जैन शब्दकोष भी कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।
यह पुस्तक "श्री गोपालदास जी बरया" की जैन सिद्धान्त प्रवेशिका के आधार पर रची गयी है । उसके मूल वाक्यों के अतिरिक्त अधिक विशद व्याख्या करने के लिए तथा उत्पन्न होने वाली तत्सम्बन्धी शंकाओं की निवृत्ति के लिए अन्य अनेकों प्रश्न व उत्तर सम्मिलित करके प्रत्येक विषय को सहजबोध बनाने का प्रयत्न किया गया है । पद्धति सर्वत्र वही प्रश्नोत्तर वाली रखी गई है। प्रश्न मोटे अक्षरों में लिखे हैं और उत्तर पतले अक्षरों में । अध्यायों के नम्बर वही हैं। केवल उनके अन्तर्गत अधिकार विभाग द्वारा सूची-पत्र को विशदता प्रदान की गई है।
विषय का क्रम व प्रवाह अधिकारों के अनुसार रखने के लिए कहीं-कहीं मूल प्रश्नों का क्रम भंग करके उन्हें कुछ आगे पीछे करना पड़ा है, परन्तु प्रश्न कहीं भी लिखे गये हों उनके शब्द जू के तू हैं। कहीं-कहीं उनमें कुछ विशदता लाने के लिये यदि कुछ शब्द अपनी ओर से जोड़ने पड़े हैं तो वे ब्रकेट में लिखे गये हैं, ताकि पुस्तक की प्रमाणिकता सुरक्षित रहे । अधिकार विभाग हो जाने के कारण, प्रसंग रूप से कुछ प्रश्नों को दो या तीन बार तक ग्रहण करके पुनरुक्ति करना अनिवार्य हो गया है।
__ पुस्तक की प्रशंसा करना व्यर्थ है, क्योंकि वह अपना परिचय स्वयं दे रही है। इतना ही कह देना पर्याप्त है कि अबोध से अबोध शक्ति भी इसे ध्यान से पढ़कर दुर्बोध से दुर्बोध विषय को सुबोध रूप जान सकता है । इसे पढ़ने के पश्चात् वह सहज आगम के अथाह सागर में निर्भय अवगाह पाने को समर्थ हो जायेगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। इसलिए यदि इसे जैन-दर्शन का प्रवेश द्वार कहें तो अनुचित न होगा। रोहतक
(१०) जिनेन्द्र वर्णी जून १९६७
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