Book Title: Jain Shravikao ka Bruhad Itihas
Author(s): Pratibhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 9
________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास अभिमत महासती श्री प्रतिभाश्रीजी म. प्राची ने अपने शोध का विषय "चतुर्विध जैनसंघ में श्राविकाओं का योगदान" स्वीकार करके पाठकों को नारीशक्ति के मूल तक ले जाने का प्रयत्न किया है। नारी जगत के मूल में, सृष्टि ऊर्जा के रूप में परिव्याप्त है, उस नारी ऊर्जा का पूर्ण विकसित स्वरूप है- "श्राविका" | नारी जगत की पूर्ण परिष्कृत अवस्था विशेष का सम्माननीय सम्बोधन है- "श्राविका"। "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान" जितना बृहद विषय है उसे शब्दों में बाँधना उतना ही कठिन है, जैसे "सागर को बूंद" में सीमित करना। जिसे जगत जननी कहकर महिमा दी जाती है, जगत का अस्तित्व ही जिस पर हुआ है, वह नारी शक्ति सृष्टि के कण कण में व्याप्त है। नारी शक्ति को शब्दों की सीमा में बाँधने का प्रयत्न करना दुस्साहस ही कहा जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शोधकर्ता वैज्ञानिक होता है, उसकी सोच सूक्ष्म होकर चलती है। एक वैज्ञानिक दिमाग यह अच्छी तरह समझता है कि बूंद और सागर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उसकी सूक्ष्म दृष्टि में बूंद और सागर में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। वह बूंद में सागर को देख सकता है एवं सागर में "बूंद" को। यही दृष्टि अध्यात्म की ओर मुड़ जाती है, तो आत्मा में परमात्मा को एवं परमात्मा में आत्मा को देखने, अनुभव करने की क्षमता पैदा हो जाती है। अज्ञान की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं और वह स्वयं ज्ञानरूप रह जाता है। ज्ञाता और ज्ञेय का भेद तक मिट जाता है। नारीशक्ति का महत्त्व : इस जगत में जो महत्त्व नर का है, वही महत्त्व नारी का है। पुरूष और नारी परस्पर सहयोगी सम्बन्ध हैं फिर भी पुरूष का महत्त्व अधिक माना जाता है। पुरूष कहीं अभिमान के कारण, अन्याय, अत्याचार और पाशविकता के कारण अपना पौरूष सिद्ध करने के लिये पुरूष-प्रधान संस्कृति का निर्माता बना रहा। इसके लिये नारी पर अत्याचार, अनाचार तक करता रहा। नारी के प्राकृति अधिकारों को छीन कर अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहा जबकि नारी जाति अपनी पहचान को तिलांजलि देकर नर के प्रत्येक कार्य में सहचारिणी बनी रही। हर स्थान पर, हर मोड़ पर अपने आपको गुप्त रखकर नर के महत्त्व को उजागर करती रही। उसकी महानता को स्वीकार करने में पीछे नहीं रही। नारी के इसी बलिदान ने ही उसे ऊँचा उठाया है। यही कारण है कि नर को शक्ति के रूप में, विधा के रूप में, साधनों के रूप में नारी का वर्चस्व स्वीकार करना पड़ा है। यही कारण है कि महाशक्ति के रूप में, महासरस्वती के रूप में, महालक्ष्मी के रूप में आज नारी को पूजा जाता है और नारी को नर से आगे रखा जाता है। शोधग्रन्थ साधिका महासती श्री प्रतिभा श्रीजी ने "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान” विषय लेकर पाठकों को यथार्थ की ओर मोड़ने का प्रयत्न किया है। धार्मिक जगत में नारी का योगदान इतना अधिक रहा है कि नर इसकी बराबरी कभी नहीं कर सकता क्योंकि नर स्वभावतः कठोर होने के कारण कठोर कर्मों (पापकर्मों) की ओर प्रवाहित हो जाता है। कठोर स्वभाव वाला. कठोर कर्मों में ही रस लेने लग जाता है। जबकि नारी तन मन से कोमल, सरल, विनम्र, लज्जाशील और करूणाशील होती है, प्रेम और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है अतः आध्यात्मिक वृत्तियों में सहज ही प्रवेश कर जाती है। आध्यात्मिकता में दया, करूणा, लज्जा, सहनशीलता का स्वाभाविक महत्त्व रहता है। इन भावों को प्राप्त करने के लिये नारी जाति को विशेष प्रयत्न की आवश्यकता ही नहीं होती है। वह स्वभावतः धर्मात्मा होती है या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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