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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
'थोड़ा सा अपनापन पाकर मिट्टी कितना दे जाती है। मिट्टी माणिक, मिट्टी मोती, मिट्टी सोना उपजाती है। कल्पतरू, है ये मिट्टी शाखाओं पर स्नेह खिलाती है
हम गुलाब होकर तो देखें, मिट्टी खुशबू हो जाती है।। उन्होंने अपनी भावाभिव्यक्ति को, अपनी खोज को इस प्रशस्त मार्ग से सजाया संवारा है और संपूर्ण लालित्य से मंडित कर दिया है। सृजनात्मक लेखन में उन्होंने चुनिंदा मोती बिखेरे हैं और विविध रंगी आयाम प्रदान किये हैं। सरल हिन्दी में अवतरित इस ग्रंथ ने इतिहास के गर्भ में छिपे अनेक अनछुये पटों को खोलकर तथ्यों को सामने लाने का कार्य किया है, यही इस ग्रन्थ की विशेषता है।
___ अपने अनुभव से इन्होंने इस कृति को बहुत ही सरल, सहज और रोचक बना दिया है। पाठक एक बार पुस्तक पढ़ना आरंभ करेगा तो अंत तक पढ़े बिना छोड़ नहीं पायेगा। उसकी चेतना और संवेदना दोनों के भीतर गहरे तक प्रवेश करने में यह कृति सक्षम रहेगी, असीम सुख एवं अपार संतोष प्रदान करेगी।
भारतीय मनीषियों ने सभ्यता के प्रारंभ से ही नारियों के प्रति सम्मान एवं आदर का विशेष भाव प्रकट किया है। जैन वाड:मय में स्त्री-पुरूष को विकास के समान अवसर प्राप्त हैं और पुरूष की तरह स्त्री भी साधना के सर्वोच्च शिखर-वीतरागता पर आरोहण कर सकती है। जैन तीर्थंकरों ने चतुर्विध संघ की व्यवस्था की है जिसके अंतर्गत श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका का समावेश किया है। इतना सब होते हुए भी जैन इतिहास में श्राविका संघ की उपेक्षा हुई है और उसका मुख्य कारण है मानव सभ्यता का विकास के साथ संक्रमण और पुरूष प्रधान संस्कृति का आविर्भाव व उनका प्राधान्य।
पू. महासतीजी ने अपने शोध कार्य में इसी प्रमुख सत्य को उठाया है और अपनी लेखनी द्वारा इस उपेक्षित पक्ष के अवदानों को उभारा है। इतना ही नहीं उन्होंने जैन धर्म के क्षेत्र में उन्हें उचित न्याय दिलाने का भरसक प्रयास किया है जो अपने आप में श्लाघनीय एवं स्तुत्य कार्य है। उन्होंने भारतीय परम्परा में नारी, उसके स्थान और उसके चरित्र पर प्रकाश डाला है जो शनैः, शनैः एक-एक काल की सीमा रेखा को पार करके आधुनिक काल तक पहुंचा है। इस ग्रंथ को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें श्राविकाओं के व्यक्तित्व की विशेषताओं का संलेखन है। इन सूत्रों पर चिंतन चर्वण करने से भयंत मान्यताओं की धुंधली चद्दर हट जाती है और सत्य सम्मुख आ जाता है। सर्वप्रथम उन्होंने वैदिक कालीन नारी, स्त्रोत सूत्रों में नारी, उपनिषद काल में नारी, रामायण काल में नारी, महाभारतकालीन नारी, स्मृतिकाल में भारतीय नारी, पौराणिक काल की भारतीय नारी, बुद्ध और महावीरकालीन नारी और जैन धर्म की चतुर्विध संघ-व्यवस्था पर प्रकाश डाला है। जैन आगम ग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार के महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी खोजकर आगम साहित्य, पुराण साहित्य, प्रबंध साहित्य, ऐतिहासिक ग्रंथ, शिलालेख और ग्रंथ प्रशस्तियां, पुरातात्विक साक्ष्य, हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों में श्राविकाएं, श्रद्धा सम्पन्न श्राविकाएं, व्रत सम्पन्न श्राविकाएं तक की यात्रा पूरी कर समस्त तीर्थंकरों के समय की श्राविकाओं की जानकारी प्रदान की है। यह खोज यहीं तक सीमित नहीं रही बल्की आगे जैन कथाओं में वर्णित जैन श्राविकाओं तथा अन्य श्राविकाओं की लम्बी श्रृंखला पार करके महाविरोत्तरकालीन जैन श्राविकाओं की भरपूर जानकारी प्रदान कर आठवीं से बीसवीं शताब्दी तक की जैन श्राविकाओं के चरित्रों को उभारने में, उन्हें न्याय दिलाने का अभूतपूर्व कार्य किया है। इसमें उन्होंने शैवों और वैष्णवों के काल को भी सम्मिलित किया है, जो जैन धर्म के पतन का कारण बने थे और दक्षिण भारत की श्राविकाओं, जिनमें श्रवणबेलगोला के महत्त्वपूर्ण शिलालेख, कर्नाटक की जैन श्राविकाएं, दक्षिण भारत की विविध वंशोत्पन्न जैन श्राविकाओं के बारे में भी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। साथ ही साथ सोलहवीं से बीसवीं शताब्दी
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