Book Title: Jain Shravikao ka Bruhad Itihas
Author(s): Pratibhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 13
________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास | एक महत्वपूर्ण शोध कार्य जैन धर्म निवृत्ति प्रधान होते हुए भी संघीय साधना का धर्म है। उसमें संघीय साधना ही मुक्ति का सरलतम साधन है। वह भीड़ में रहकर भी एकाकी रहना सिखाता है। जैन धर्म में संघ के चार पाए माने गए है- १) साधु, २) साध्वी, ३) श्रावक और ४) श्राविका । इस चतुर्विध संघ को भगवती सूत्र में तीर्थ कहा गया है। तीर्थ उसे कहते है जो व्यक्ति को संसार रूपी समुद्र से पार कराता है। इस प्रकार संघीय साधना के अंग के रूप में यह चतुर्विध संघ की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। मूलभूत आगम-साहित्य में यद्यपि मुनि-आचार का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है किन्तु उनमें साधु और साध्वी दोनों के ही आचार का वर्णन है। श्रावक-आचार से सम्बन्धित वर्णन मात्र उपासक दशांग सूत्र में मिलता है। जिसमें इन प्रमुख दस श्रावकों के साथ-साथ इनकी कुछ पत्नियों के द्वारा जैन धर्म की साधना करने का उल्लेख है। इस प्रकार आगम युग से ही जैन संघ में श्राविकाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, फिर भी श्राविकाओं के सन्दर्भ में स्वतन्त्र और विस्तृत विवेचन का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। यद्यपि भगवती सूत्र में जयन्ती आदि कुछ श्राविकाओं का उल्लेख है जो भगवान महावीर से भी धर्म चर्चा करते हुए देखी जाती हैं। इस प्रकार यदि हम कहें कि चतुर्विध संघ में श्राविकाओं का एक महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी उनका चरित्र-चित्रण एवं उनके अवदान का मूल्यांकन कम ही हुआ है। ____शोध-कार्यों की अपेक्षा से भी यदि हम विचार करे तो श्राविकाओं के अवदान को लेकर एक-दो शोध कार्यों को छोड़कर प्रायः इसका अभाव ही देखा जाता है। केवल एक के ग्रन्थ 'जैन धर्म की साध्वियों और महिलाएँ' को छोड़कर मुझे ऐसा एक भी शोध-ग्रन्थ देखने को नहीं मिला, जिसमें श्राविकाओं के जैन धर्म के क्षेत्र में दिए गए अवदानों की चर्चा हुई हो। इसी दृष्टि से साध्वी विजय श्रीजी ने जब जैन श्रमणियों पर व्यापक दृष्टि से शोध कार्य करने का निर्णय किया तो मैंने उनके नेश्रायवर्तिनी साध्वी प्रतिभाजी को 'जैन धर्म में श्राविकाओं का अवदान' विषय पर शोध-कार्य करने का निर्देश दिया। जिस प्रकार साध्वी विजयाश्रीजी ने विभिन्न ऐतिहासिक स्त्रोतों के आधार पर हजारों जैन श्रमणियों की जैन धर्म में उपस्थिति का संकेत किया उसी प्रकार साध्वी प्रतिभाजी ने भी भगवान ऋषभदेव के काल से लेकर वर्तमान युग तक की श्राविकाओं की चर्चा अपने शोध प्रबन्ध में की है। मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि जिस प्रकार पूज्या साध्वी विजयाश्रीजी के वृहकाय शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन हुआ उसी प्रकार साध्वी प्रतिभा श्रीजी के भी शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन हो। इस शोध-कार्य में जहाँ एक ओर साहित्यिक आधार के रूप में आगमों से लेकर वर्तमान युग तक के ग्रन्थों का सहयोग लिया गया वहीं दूसरी ओर पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण जो भी अभिलेख उपलब्ध हो पाए उनका तथा प्रतिष्ठा-लेखों का भी उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त हस्तलिखित पुस्तिकाओं के आधार पर भी श्राविकाओं के इतिहास का संकलन किया गया। संकलनात्मक होते हुए भी यह शोध की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण कार्य था जिसमें लगभग पाँच हजार से अधिक श्राविकाओं के अवदान का उल्लेख हुआ है। ऐसे श्रमपूर्ण एवं इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य के लिए साध्वीजी निश्चय ही बधाई की पात्र है। मेरा ऐसा विश्वास है कि इस ग्रन्थ का अध्ययन करके ही जन-सामान्य उनके अविरल श्रम और योगदान को समझ सकेगा। अपेक्षा है कि यह ग्रन्थ जैन समुदाय में लोकप्रिय बनेगा और नारी-जगत के मस्तक को गर्व से ऊँचा करने में सहायक भी बनेगा। सम्भवतः श्राविका-संघ के अवदान को समझाने में इस ग्रन्थ की भूमिका न केवल वर्तमान में अपितु भविष्य में भी महत्वपूर्ण बनी रहेगी। मैं साध्वी प्रतिभाजी से यह अपेक्षा करता हूँ कि वे इस शोध कार्य को अपनी साहित्यिक साधना की इतिश्री न मानकर भविष्य में भी उत्तरोत्तर सद्ग्रन्थों का प्रणयन करते हुए जैन संघ को उपकृत करते रहें। - डॉ. सागरमल जैन www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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