Book Title: Jain_Satyaprakash 1947 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૧૨ ] કલેકયપ્રકાશકા હિન્દી અનુવાદ [ ૩૪૩ "समेक्षणौ "का अर्थ 'दृष्टि चारों और होती है ऐसा लिखा है । इस जगह समदृष्टि अर्थात् बराबर सामने दृष्टि ऐसा होना चाहिये था। श्लो. २३ में 'बुधः काषायिको जीवो मधु तिक्तो तमः शनी।'का अर्थ 'बुध और बृहस्पति कषायरसवाले,शनि और राहु मधुर और तिक्त रस वाले होते हैं' ऐसा अर्थ प्रत्यक्ष गलत मालूम होता है। क्योंकि श्लोकमें स्पष्ट है कि 'बुध काषायरसवाला, गुरु मधुररसवाला शनि और राहु तिक्तरसवाला है।' श्लो. १४ " जीवो गुरुबुधौ केतुनिराहुकुजेन्दवः । शुक्राऊ मूलमाधिक्यं बलं यस्याधिकं तु यत् ॥ अर्थ-गुरु और बुधमें गुरुका बल अधिक है। केतु शनि राहु मंगल और चंद्रमासे शुक्र और सूर्यका बल अधिक होता है ॥२४॥ भाषान्तरकर्ताने इस श्लोकका आशय समझनेकी तकलीफ नहीं की। मूल श्लोकमें 'केतु' के स्थान पर 'धातुः शब्द प्राचीन प्रतियों में है। इस श्लोकका आशय ऐसा है कि-गुरु और बुध जीव संज्ञक है, शनि राहु मंगल और चंद्रमा ये धातु संज्ञक है, शुक्र और सूर्य ये मूल संज्ञक है। इनमें जो ग्रह अधिक बलवान हो उस वस्तुकी अधिकता होती है। ऐसा सीधा और सरल अर्थ है। श्लो. २८ 'स्थूल इन्दुः सितः खण्डश्चतुरस्रौ कुजोष्णगू ।' का अर्थ 'चंद्रमाकी आकृति स्थूल है, शुक्र कृश है, मंगल और सूर्य मध्यम शरीरवाले है, ऐसा लिखा है । उसमें 'सितः खण्डः' का अर्थ शुक्र कृश लिखा है।' यह दूसरे ग्रंथोसे अप्रमाणित होता है। खंडका अर्थ आधा या ट्रकडा ऐसा सरल अर्थ है। देखो भुवनदीपक ग्रंथके टीकाकार श्री सिंहतिलकसूरि लिखते हैं कि ' खण्ड इत्यर्द्धचन्द्राकारः ' अर्थात् अर्द्धचंद्रके आकारवाला । ' चतुरस्रौ ' का अर्थ मध्यम शरीरवाला लिखा, यह भी अप्रमाणिक मालूम होता है, क्यों कि इसका अर्थ 'समचोरस' होता है। नीलकंठी ताजक ग्रंथमें भी मंगल और सूर्यकी आकृति समचोरस माना है । श्लो. ३० के उत्तरार्द्धका अर्थ भी दूसरे ग्रंथोंसे अप्रमाणित होता है। क्योंकि मूल श्लोक में 'शनिस्तु शुषिरः' पाठ है, तो उसका अर्थ सूक्ष्म कैसे होवे ? एवं गुरुको दीर्घ लिखा इस जगह सूक्ष्म पाठ है । श्लो. ३१ में : चन्द्रबुधौ' और ' गुरुसितौ ' लिखा है, इस जगह प्राचीन प्रतियोंमें चन्द्रसिौ और गुरुज्ञा ऐसा पाठ है यह ठीक माल्लम होता है। श्लो. ३३ में पु का अर्थ मुंगा लिखा है, इस जगह बंग होना चाहिये । श्लो. ३४ में 'चन्द्रे शुक्रे जलाधारो' है। उसमें 'जलाधारो' का अर्थ गोशाला लिखा है। यह तो सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि जलाधार का अर्थ पानी का स्थान होना चाहिये। यह श्लोक ३४ और ३५ वां युम्म है किन्तु भाषान्तरकारने नहीं समझा, जिसे ३४ में ग्रहों को अपने २ स्थानमें होने का लिखा, यह बड़ी भूल हो गई मालूम होता है, क्यों कि अपने २ के स्थान पर चतुर्थ स्थान For Private And Personal Use Only

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