Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थभाष्य और अकलंक (लेखांक ३ *) लेखक-प्राफेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए. [ नोट--इस लेख को 'जैन सत्य प्रकाश ' में भेजने के पहले, मैंने 'अनेकांत 'के सम्पादक को पत्र लिखकर लेख को 'अनेकांत' में प्रकाशित करने के लिये लिखा था। मैं चाहता था कि यह लेख 'अनेकांत' में ही छपे, क्योंकि उसी पत्र ने इस विषय को विस्तृत चर्चा चलाई है । परन्तु सम्पादक 'अनेकांत' का पत्रोत्तर पढ़कर मुझे अपनी इच्छा का संवरण करना पड़ा। आपने शायद लेखके बिना देखे ही यह कल्पना कर ली कि लेख 'छपने के योग्य' नहीं है । संभव है आप इस लेख को " भारी भ्रान्ति" फैलानेवाला समझकर अपने “ पाठकों को भूलभुलैयाँ के एकान्त गर्त " में गिरने से बचाने के लिये अपने पत्रमें स्थान न देना चाहते हों-लेखक] જેમ તત્વાર્થસૂત્ર મૂળના રચયિતા શ્રી ઉમાસ્વાતિ વાચક છે તેમ એ મૂળ સૂત્ર ઉપરના ભાગ્યના રચયિતા પણ તેઓ જ છે. અને શ્રી ઉમાસ્વાતી વાચક પછી તરવાર્થ સૂત્રના વૃત્તિકારોએ આ પજ્ઞ ભાષ્યના આધારે જ માર્ગદર્શન મેળવ્યું છે. પ્રસ્તુત લેખમાં આ વિષય સપ્રમાણ વિસ્તાસ્થી ચર્ચવામાં આવે છે એટલે જિજ્ઞાસુઓને તે ઉપયોગી થઈ પડશે એમ સમજી એ લેખ અહીં પ્રગટ કરીએ છીએ. तत्री. 'अनेकांत' (३-११, १२) में पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार का “ प्रोफेसर जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा" नामक एक लेख प्रकाशित हुआ है । लेख में लेखक ने बहुतसे व्यक्तिगत हमले किये हैं-और आत्मप्रशंसा के पुल बाँधे हैं। मैं चाहता था कि इनका कुछ उत्तर दूँ और 'अनेकांत 'के सम्पादक के मनोगत भावों का कुछ परिचय कराऊँ । लेकिन विद्वान् मित्रों का अनुरोध है कि इन हमलों का कोई उत्तर न देकर मुख्य चर्चा ही ध्येय रहना चाहिये। अतएव मैं सीधा मुख्य विषय की ओर आता हूँ। १ अर्हत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय पं. जुगलकिशोरजी का वक्तव्य (क)" गुणाभावादयुक्तिरिति चेन्नाहत्मवचनहृदयादिषु गुणोपदेशात् ॥२॥ गुणा इति संज्ञा तंत्रांतराणां, आर्हतानां तु द्रव्यं पर्यायश्चेति द्वितयमेव तत्त्वं अतश्च द्वितयमेव तव्योपदेशात् । द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक इति द्वावेव मूलनयौ । यदि गुणोऽपि कश्चित्स्यात् तद्विषयेण मूलनयेन तृतीयेन भवितव्यम् । न चात्यसावित्यतो गुणाभावात् , गुणपर्यायवदिति निर्देशो न युज्यते ? तन्न, किं कारणं ? अर्हप्रवचनहृदयादिषु गुणोपदेशात् । उक्तं हि अर्हप्रवचने “द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा" इति । अन्यत्र चोक्तं— . * इससे पहले दो लेख 'अनेकांत' में वर्ष ३, किरण ४ तथा वर्ष ३, किरण ११ में प्रकाशित हो चुके हैं। For Private And Personal Use Only

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