Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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શ્રો જૈન સત્ય પ્રકાશ
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भाष्य का नहीं हो सकता । अतः इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि ' तत्त्वार्थाधिगम' और 'अर्हत्प्रवचनसंग्रह ' ये दोनों मूल तत्त्वार्थसूत्र के ही नाम हैं, उसके भाष्य के नहीं ।
मेरा वक्तव्य
(क) पाठक देख सकते हैं कि उक्त कथन में पूर्वापर विरोध है। पहले बताया गया है "अप्रवचन और अर्हः प्रवचनहृदय तत्त्वार्थभाष्य के तो क्या मूल तत्त्वार्थसूत्र के भी उल्लेख नहीं हैं "; तथा अब कहा जा रहा है कि तत्त्वार्थाधिगम और अर्हत्प्रवचनसंग्रह (अर्हःप्रवचन; यह पद 'अर्हत्प्रवचनसंग्रह ' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, यह बात पं. जुगलकिोशरजी पहले कह चुके हैं, ) ये दोनों मूल तत्त्वार्थसूत्र के ही नाम हैं, उसके भाष्य के नहीं । दूसरी बात यह है कि जिस कारिका की टीका का उल्लेख करते हुए, ऊपर मेरे मान्य बताकर सिद्धसेनगणि का नामोल्लेख किया गया है, असल में वह उल्लेख देवगुप्तसूरि का है, सिद्धसेन गणिका नहीं । न मालूम ' अनेकांत ' के सम्पादक महाशय इतनी बड़ी गलती कैसे कर गये ?
(ख) अर्हत्प्रवचन अथवा तत्त्वार्थाधिगम को मूल तत्त्वार्थसूत्र का वाचक मानना निरा भ्रम है, यह बात निम्न उद्धरणों से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है
(अ) वक्ष्यति ह्याचार्यः शास्त्रे " अनंतानुबंध्युदयात् पूर्वोत्पन्नमपि सम्यग्दर्शनं प्रतिपतती "ति ( देवगुप्तसूरि टीका पृ. ४).
(आ) पुनरपि विस्तरतः शास्त्रे वक्ष्यामः ( वही पृ. ५ ).
(इ) वक्ष्यति च शास्त्रे " प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ( वही पृ. ९ ).
(ई) इतीयं कारिकाटीका शास्त्रटीकां चिकीर्षुणा ।
सन्दृब्धा देवगुप्तेन प्रीतिधर्मार्थिना मता ॥ ( वही पृ. १९ )
( उ ) यत इह हि शास्त्रे प्रसंगानुप्रसंगस्त्रय एव पदार्थाः सम्यग्दर्शनादयः ( सिद्धसेनगणिटीका भाग १ पृ. २५)
(ऊ) तवार्थशास्त्रटीकामिमां व्यधात् सिद्धसेनगणिः । ( वही भाग २ पृ. ३२८ ) (ए) इति श्री तत्त्वार्थाधिगमटीका समाप्ता । ( वही पृ. ३२८)
उक्त उद्धरणों में जो ‘शास्त्र' 'तत्त्वार्थ शास्त्र' अथवा 'तत्त्वार्थाधिगम' पद आये हैं, वे सामान्य से तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थ भाष्य दोनों के लिये आये हैं। उदाहरण के लिये नं.
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