Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ जा सकता था कि अर्हत्प्रवचन और तत्वार्थाधिगम ये दोनों नाम उमास्वातिकर्तृक सूत्र के हैं लेकिन यही तो स्पष्ट ' उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' पद है; जिसका अर्थ स्पष्ट है कि अहत्प्रवचन और तत्त्वार्थाधिगम विशेषण उमास्वातिवाचकोपज्ञ सूत्र और भाष्य दोनों के हैं, न कि मात्र उमास्वातिवाचकोपज्ञ सूत्र के । अतएव व्याकरणदृष्टि से उक्त वाक्य का अर्थ यह होगा कि 'उमास्वातिकर्तृक सूत्र और भाष्य जो कि अर्हत्प्रवचनरूप है और तत्त्वा धिगमरूप है।' वास्तव में बात यह है कि उक्त उल्लेख सूत्र और भाष्य को अखंड-एक कृति मान कर किया गया है। उक्त वाक्य का यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि 'उमास्वातिवाचकोपज्ञ सूत्र के भाष्य में'। यहाँ अहत्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये, ये तीनों पद समानाधिकरण हैं, यह बात व्याकरण के अभ्यासी को बताने की आवश्यकता नहीं ! इससे स्पष्ट है कि उक्त तत्वार्थाधिगम, अर्हत्प्रवचन आदि विशेषण तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य दोनों के लिये आये हैं। जैसे 'वेद' कहने से मंत्र और ब्राह्मण दोनों का बोध होता है, उसी तरह तत्त्वार्थाधिगम और अर्हप्रवचन का अर्थ सूत्र और भाष्य दोनों समझना चाहिये । स्वयं लेखक ने भी 'अर्हत्प्रवचन' विशेषण को, मूलसूत्र और भाष्य का एक ही ग्रंथकर्ता माने जाने की हालत में कथंचित् भाष्य का विशेषण" माना भी है। इससे हमारे उक्त कथन की ही सिद्धि होती है। नहीं तो पहले भाष्य की अस्वोपज्ञता सिद्ध करके बताना चाहिये। सिद्धसेनगणिटीका के सप्तम अध्याय के संधिवाक्य में जो 'अनगारागारिधर्मप्ररूपण' विषय कहा गया है, वह न केवल तत्त्वार्थ सूत्रमूल का विषय है, बल्कि वह विषय तो मूलसूत्र और भाष्य दोनों का है, जिस पर टीका लिखी गई है। ३ वृत्ति पं. जुगलकिशोरजी का वक्तव्य (क)-(अ) वृत्तौ पंचत्ववचनात् षड्द्रव्योपदेशव्याघात इति चेन्न अभिप्रायापरिज्ञानात् ॥ ८॥ स्यान्मतं वृत्तायुक्तमवस्थितानि धर्मादीनि न हि कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरंति ततः षद्रव्याणीत्युपदेशस्य व्याघात इति । तन्न, किं कारणं । अभिप्रायापरिज्ञानात् । अयमभिप्रायो वृत्तिकरणस्य–कालश्चेति पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वक्ष्यते तदनपेक्षादिकृतानि पंचैव द्रव्याणीति षड्द्रव्योपदेशाविरोधः-( राजवर्त्तिक ) (आ) अवस्थितानि च । न हि कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति ( तत्त्वार्थभाष्य) -राजवार्तिक और भाष्य के उक्त अवतरणों में परस्पर अन्तर है; भाष्य के पाठ में 'धर्मादीनि' पद का अभाव है, और 'च' तथा 'भूतार्थत्वं' ये पद अधिक । वृत्ति For Private And Personal Use Only

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