Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 42
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७०] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [११ भाष्यपंक्तियों में 'पंचद्रव्याणि' का अर्थ 'पंचास्तिकाय ' से है, यह बात मैं पहले लेख में बता चुका हूँ । अबतक काल का कथन नहीं किया गया, इस लिये यहाँ काल की गिनती नहीं हो सकती । अतः काल की अनपेक्षा से और पंचास्तिकाय की अपेक्षा से ही यहाँ पाँच द्रव्य कहे गये हैं। हरिभद्र ने उक्त पंक्तियों की टीका करते हुए यह कहीं नहीं लिखा कि उमास्वाति के मत से पांच ही द्रव्य हैं, अथवा वे काल को द्रव्य नहीं मानते । उक्त भाष्यपंक्तियों की टीका में वे लिखते हैं-" पंच द्रव्याणि भवन्ति, तथा तथा द्रवणात्, तदेते कायाश्च द्रव्याणि च, उभयव्यवहारदर्शनात् " अर्थात् धर्माधर्मादि काय भी हैं और द्रव्य भी हैं, दोनों प्रकार से व्यवहार होता है । विद्यानंद ने श्लोकवार्तिक में "पंचास्तिकायद्रव्याणि धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवाख्यानि प्रसिद्धानि भवंति" लिखकर धर्माधर्मादि पांच को अस्तिकायद्रव्य कहा है । स्वयं अकलंक देव ने " वृत्तौ पंचत्ववचनात् षड्द्रव्योपदेशव्याघातः" आदि वार्तिक बनाकर भाष्य की उक्त पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कर दिया है कि वृत्ति में काल की अनपेक्षा से, अर्थात् पंचास्तिकाय की अपेक्षा से ही यह कथन है, अतएव षडद्रव्य का व्याघात नहीं होता । वृत्तिकार आगे चलकर काल का लक्षण कहेंगे । " न हि कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति" इस भाष्यपंक्तिगत भूतार्थत्व शब्द का अर्थ करते हुए पं. जुगलकिशोरजी ने लिखा है-" अर्थात् ये द्रव्य कभी पांच की संख्या का और भूतार्थता( स्वतत्त्व ) का अतिक्रम नहीं करते-सदाकाल अपने स्वत्व तथा पांच की संख्या में अवस्थित रहते हैं । इसका स्पष्ट आशय यह है कि न तो इनमें से कोई द्रव्य कभी द्रव्यत्व से च्युत होकर कम हो सकता है, और न कोई दूसरा पदार्थ इनमें शामिल होकर द्रव्य बन सकता है, तथा द्रव्यों की संख्या बढ़ा सकता है ।" न मालूम उक्त पंक्तियों में 'भूतार्थत्व' पद से यह ' स्पष्ट आशय' कैसे निकाल लिया गया ? भूतार्थत्व का अर्थ स्वतत्त्व किया गया है, लेकिन वह स्वतत्त्व क्या वस्तु है, यह भी तो समझने की आवश्यकता है। सिद्धसेन गणि ने जो 'भूतार्थत्व' का अर्थ किया है वह ध्यान देने योग्य है, “ धर्मादि पांच द्रव्यों का जो गत्यादि रूप वैशेषिक लक्षण है, उसे भूतार्थत्व कहते हैं । अथवा धर्मादि द्रव्यों में असंख्येयादि प्रदेशों की अनादिपरिणामस्वभावता का नाम भूतार्थत्व है। धर्मादि द्रव्य, स्वतत्व-स्वगुण अर्थात् गत्यादि उपकार रूप गुण अथवा असंख्येय प्रदेशादिरूप गुण को छोड़कर अन्यदीय गुण रूप नहीं होते, इसलिये उन्हें ' अवस्थित' कहा है ।” यहाँ 'पंचत्व' शब्द का अकलंक ने जो ऊपर पंचास्तिकाय अर्थ किया है, वही ठीक बैठता है। १ धर्मादीनि न स्वतत्त्वं भूतार्थत्वं वैशेषिकं लक्षणमतिवर्तन्ते, तच्च धर्माधर्मयोर्गतिस्थित्युपग्रहकारिता, नभसोऽवगाहदानव्यापारः, स्वपरप्रकाशिचैतन्यपरिणामो जीवानाम् , अचैतन्यशरीरवाङ्मन: For Private And Personal Use Only

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