Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૬૬ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ अत्रोच्यते । यथा सर्वमेकं सदविशेषात् सर्वे द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्यायावरोधात् सर्वं चतुष्टयं चतुर्दर्शनविषयावरोधात् सर्वं पंचत्वमस्तिकायावरोधात् सर्वं षट्त्वं पद्रव्यावरोधादिति । - तत्त्वार्थभाष्य " ܪ - यहाँ यद्यपि तत्त्वार्थभाष्य में 'षड्द्रव्य ' का उल्लेख है, किन्तु भाष्यकार द्वारा विधानरूप से ‘षड्द्रव्याणि ' ऐसा कहीं भी नहीं लिखा गया है। भाष्य के उस अंश में उल्लेखित वाक्यों की जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह समझने के लिये उसके पूर्वीश और पश्चिमांश दोनों को सामने रखने की ज़रूरत है । षद्रव्य किस दृष्टि से यहाँ विवक्षित है, इस बात को सिद्धसेन ने ही अपनी वृत्ति में स्पष्ट कर दिया है । वे कहते हैं पाँच तो ' धर्मादिक' और छठा ' कालश्चेत्येके ' सूत्र का विषय काल ( षडद्रव्याणि कथं : उच्यते-पंच धर्मादीनि कालश्चेत्येके) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ग) अतएव अकलंक के सामने उनके उल्लेख का विषय कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था और वह उन्हींका अपना राजवार्त्तिकभाष्य भी हो सकता है । - मेरा वक्तव्य - (क) यहाँ पहले यह समझ लेना जरूरी है कि भाष्यकार का कालद्रव्य के संबंध में क्या मत है, और उसे सिद्धसेनगणि ने किस तरह समझा है। इसे समझने के लिये यहाँ सिद्धसेन के कालद्रव्यसंबंधी उल्लेख दिये जाते हैं (अ) पहले अध्याय के ३५ वें सूत्र की भाष्यटीका 66 'षडूद्रव्याणि कथं ? उच्यते-पंच धर्मादीनि कालश्चेत्येके "" यहाँ सिद्धसेन ने काल के संबंध में कोई निश्चित बात न कह कर ' कालश्चेत्येके ' सूत्र को ही दे दिया है । अर्थात् एतद्विषयक मान्यता इस सूत्र में आगे जाकर स्पष्ट होगी । (आ) तीसरे अध्याय के छठे सूत्र की भाष्यटीका में अस्तिकाय और लोकसंस्थान की चर्चा के प्रसंग पर–“ लोकसंस्थान का स्पष्टतर सन्निवेश इन्हीं आचार्य ने अन्य प्रकरण में बताया है "। २ यह कह कर प्रशमरति का श्लोक दिया गया है, जिसमें जीव - अजीव आदि षड्द्रव्यों का स्पष्ट कथन है । १ तुलना करो - षड्द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीन्येव कालावसानानि, 'कालश्चेत्येके ' इति वचनात् ( हरिभद्र - टीका ) २ लोकसंस्थानस्य स्फुटतरः सन्निवेशोऽमुनैव सूरिणा प्रकरणान्तरे ( प्रशमरति गाथा २१०२११ ) अभिहितस्तद्यथा जीवाजीवौ द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम् । वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥ For Private And Personal Use Only

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