Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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म४] તત્વાર્થભાષ્ય ઔર અલંક
[१९७ (इ) चौथे अध्याय के १५ वें सूत्र के भाष्य में काल के द्रव्यत्व पर विचार करते समय"यहाँ प्रवचन में संग्रह और व्यवहार दोनों नयों की अपेक्षा से काल का कथन है। कुछ लोग काल को स्वतंत्र न मान कर जीवाजीव की पर्याय मानते हैं, तथा कुछ लोग काल द्रव्य को पंचास्तिकाय के अतिरिक्त छठा स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं "१ दोनों मान्यताओं के समर्थन में यहाँ आगम-वाक्य उद्धृत किये हैं।
(ई) तत्पश्चात् पांचवे अध्याय में 'कालश्चेकीयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते, वाचकमुख्यस्य पंचैवेति ' कह कर उमास्वाति के मत से पांच ही द्रव्य बताये गये हैं । यह उल्लेख पूर्वपक्ष के (क) भाग में ऊपर दिया गया है।
(उ) यहाँ एक बात विचार करने की है कि यदि सिद्धसेन को उमास्वाति के मत से पांच ही द्रव्य अभीष्ट हैं तो 'वाचकस्य तु पंचैव' इस उल्लेख से सिद्धसेन गणि की जिज्ञासावृत्ति शांत हो जानी चाहिये थी । लेकिन निम्न उल्लेख से मालूम होता है कि तत्त्वार्थभाष्य की टीका लिखने के आरंभ से ही, सिद्धसेन को जो उमास्वाति की कालद्रव्यसंबंधी मान्यता विषयक विकल्प चला आ रहा था, उसका निराकरण न हो सका। उन्हें फिर शंका हुई कि यदि वास्तव में वाचकमुख्य के अनुसार पांच ही द्रव्य हैं तो फिर उन्हें " वर्तना परिणामः क्रिया" आदि सूत्र में काल का उपकार बताने की क्या आवश्यकता थी? इस भाव को सिद्धसेन ने निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है-" प्रश्न–पूर्वकथित धर्मादि द्रव्यों के उपकारविषयक प्रश्न उठने पर, जब कालद्रव्य का उल्लेख ही नहीं किया, तो फिर तत्कृत उपकार विषयक प्रश्न कैसे उठ सकता है ? उत्तर-ठीक है, यद्यपि कालद्रव्य नहीं कहा, किन्तु उसे कालश्चेत्येके सूत्र में कहेंगे कि वह कदाचित् किसीके मत से धर्मादि पंचास्तियों में गर्मित होता है, और कदाचित् धर्मादि के समान स्वतंत्र द्रव्य है ॥"२ यहाँ सिद्धसेन ने कालश्चेत्येके सूत्र का अर्थ स्पष्ट कर दिया है । इस सूत्र का अर्थ यह नहीं कि उमास्वाति कालद्रव्य को अंगीकार नहीं करते; जैसा पं. जुगलकिशोरजी समझ रहे हैं । यहाँ ऊपर नं. (इ) में बताए हुए मत का ही समर्थन किया गया है।
१ अत्र च प्रवचने संग्रहव्यवहारापेक्षयोभयथा प्रस्थानम् । एके मन्यन्ते जीवाजीवद्रव्ययोरेव पर्यायः...। आगमश्च-"किमिदं भंते ! कालेत्ति वुच्चति ? गोयमा जीवा चेव अजीवा चेव ।" अपरे मन्यते पंचास्तिकायव्यतिरिक्तं कालद्रव्यं षष्टमस्ति ।............। तथा चागमः-"कइ णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ दव्वा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाये......अद्वासमये ।”
२ ननु च पूर्वोपन्यस्तेषु धर्मादिषु द्रव्येषूपकारविषयः प्रश्नो घटमानः कालद्रव्यं तु नैवोपन्यस्तम्, अतः कथं तत्कृतोपकारविषयः प्रश्नः संगच्छेत ? सत्यम् , नोक्तं कालद्रव्यं, किन्तु ‘कालश्चेत्येके' इति वक्ष्यत्येकीयमतेन स कदाचिद् धर्मास्तिकायादिद्रव्यपंचकान्तर्भूतस्तत्परिणामत्वात् , कदाचित् पदार्थान्तरं धर्मादिवत् । (भाग. १ पृ. ३४७)
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