Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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म४] તત્વાર્થભાષ્ય ઐર અકલંક
[१७ और भाष्य के अवतरणों के इस अन्तर पर से तथा वृत्ति में आगे ‘कालश्च' इस सूत्र का उल्लेख होने से तो यह स्पष्ट जाना जाता है कि राजवार्तिक में जिस वृत्ति का अवतरण दिया गया है वह प्रस्तुत भाष्य न हो कर कोई जुदी ही वृत्ति है, जिसमें आगे चलकर मूलसूत्र 'कालश्च' दिया है न कि 'कालश्चेत्येके ।
(ख) यहाँ वृत्ति का अभिप्राय किसी दूसरी प्राचीन वृत्ति अथवा उस टीका से भी हो सकता है जो स्वामी समंतभद्र के शिष्य शिवकोटि आचार्य द्वारा लिखी गई थी, और जिसका स्पष्ट उल्लेख श्रवणबेलगोल के निम्न शिलावाक्य में पाया जाता है, जो वहाँ उक्त टीका की प्रशस्ति पर से उद्धृत जान पड़ता है--
___ तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालंबनदेहयष्टिः ।
संसारचाराकरपोतमेतत्तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥ मेरा वक्तव्य
(क) पाठक देखेंगे कि यहाँ भीअनुपलब्ध अर्हत्प्रवचनहृदय की तरह किसी अनुपलब्ध प्राचीन वृत्ति की कल्पना की गई है । तत्त्वार्थभाष्य के टीकाकार हरिभद्र और सिद्धसेनगणि ने उमास्वाति को वाचक, पूर्ववित् , आचार्य, सूरि, सिद्धान्तवादी, प्रवचनप्रणेता, प्रवचनवेदी, पारमर्षप्रवचनवेदी, सूत्रकृत् , सूत्रकार और भाष्यकार कहने के साथ साथ दृत्तिकार भी कहा है । निम्न अवतरण इस बात का समर्थन करते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति ' नाम से भी कहा जाता था
(अ) इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां तत्त्वार्थवृत्तिटीकायां डुपडुपिकाभिधानायां तत्त्वार्थटोकायां प्रथमोऽध्यायः।
(आ)....तारा लक्षणा इति वृत्तिकाराभिप्रायः तद् बाहुश्रुत्यादविरुद्ध एव ( हरिभद्रटीका ४-१४ पृ. १९२)
(इ) तदाह वृत्तिकारः-नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता ( वही ९-९४:पृ. ५०३) (ई) तदाह वृत्ति(भाष्य ? )कारः-नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता
(सिद्धसेनगणिटीका ९-४९) (ख) राजवार्तिक और तत्त्वार्थभाष्य के उक्त अवतरणों में साधारण हेरफेर होने से, प्रस्तुत भाष्य को 'वृत्ति' न मान कर किसी अन्य वृत्ति की कल्पना करने का कोई अर्थ नहीं । परपक्ष का निराकरण करने के लिये यह कोई प्रबल युक्ति भी नहीं। यदि तत्त्वार्थभाष्य और राजवार्तिक के उक्त अवतरणों में एक-दो पद इधर-उधर हैं भी, तो इससे हमारे कथन में कोई बाधा नहीं आती । यह मानना पड़ेगा कि राजवार्तिक के उक्त वाक्यों में भाष्य की
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