Book Title: Jain_Satyaprakash 1940 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 29
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४.] તત્વાર્થભાષ્ય ર અકલેક [१५७ अशुद्ध छपने का आग्रह करना व्यर्थ है । हाँ, वह 'अर्हत्प्रवचनहृदय' का संक्षिप्त रूप माना जा सकता है । दूसरी बात यह है कि तत्त्वार्थसूत्र में अब तक, अर्थात् पाँचवें अध्याय के 'गुणपर्यायवद्र्व्यं ' सूत्र तक, 'गुण' के विषय में कुछ नहीं कहा गया। अतएव एक तो मूल 'गुण' (गुणार्थिक नय) के विषय में अन्य आचार्यों का मतभेद* और दूसरे अब तक तत्त्वार्थसूत्र में 'गुण' के लक्षण आदि के विषय में चर्चा का अभाव, ऐसी हालत में अकलंक त्वयं अर्हत्प्रवचन + (=तत्त्वार्थपूत्र ) से बढ़कर और क्या प्रमाण देते, जिससे वे 'गुण' का समर्थन कर सकते; ख़ास कर ऐसी दशा में जब कि तत्त्वार्थसूत्र में अब तक 'गुण 'का लक्षण नहीं बताया गया; यद्यपि आगे चलकर उन्होंने 'अन्यत्र चोक्तं ' कह कर अन्य किसी शास्त्र की गाथा भी उद्धृत की है। स्वयं उमास्वाति ने "गुणपर्यायवद्रव्यं " के भाष्य में लिखा है-" गुगान् लक्षणतो वक्ष्यामः" अर्थात् गुणों का लक्षण हम आगे चल कर कहेंगे। मतलब यह है कि यदि अब तक 'गुण'के विषय में कुछ नहीं कहा तो यह न समझ लेना चाहिये कि 'गुण' कोई वस्तु नहीं; उसका कथन आगे चल कर होगा । वास्तव में भाष्य के उक्त वाक्य को लेकर ही अकलंक ने अपनी तार्किक शैली से 'गुणाभावादयुक्तिरिति चेन्न' आदि वार्तिक की रचना की है, और साथ साथ सन्मतितर्कसंमत गुणार्थिक नयसंबंधी मंतव्य को पूर्वपक्ष के रूप में रक्खा है। सिद्धसेनगणि ने जो उक्त भाष्यवाक्य की टीका लिखी है, उसमें भी प्रसंगानुसार "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" सूत्र का उल्लेख किया गया है-तान् गुणान् पिण्डघटकपालादीन् रूपादींच, लक्षणतः असाधारणशक्तिविशेषात् अभिधास्यामः (सत्र ४०)" द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" इत्यत्र । असल में "गुणपर्यायवद्रव्यं " और "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः” इन दोनों सूत्रों का पारस्परिक बहुत संबंध है, अतएव एक के विषय में चर्चा करते हुए दूसरे का नामोल्लेख आ जाना स्वाभाविक है। "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" सूत्र की उत्थानिका में अकलंक ने लिखा है-“आह गुणपर्यायवद्र्व्यमित्युक्तं तत्र के गुणा इत्यत्रोच्यते-द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" इससे भी उक्त कथन का समर्थन होता है। इसके अतिरिक्त, सूत्रकार के सूत्रोपर टीका लिखते हुए, ग्रंथ के मूलसूत्रों को उद्धृत करने की पद्धति अन्यत्र भी पाई जाती है । अकलंक ने तत्त्वार्थसूत्र के " तद्भावाव्ययं नित्यं" और " भेदादणुः" सूत्रों का उल्लेख किया है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उक्त दोनों सूत्र उमास्वाति ने अर्हत्प्रवचनहृदय नामक अनुपलब्ध सूत्रग्रंथ पर से लिये हैं। * देखो सन्मतितर्क ( ३. १२). __ + आगे चलकर बतलाया जायगा कि अर्हत्प्रवचन का अर्थ सभाष्यतत्त्वार्थ है, केवल तत्त्वार्थ सूत्र नहीं। For Private And Personal Use Only

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