Book Title: Jain Satyaprakash 1939 07 SrNo 48
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ ક્રમાંક : १२] [ भासि पत्र • [१५ ४: सं ॥श्री उपाध्यायपदस्तोत्रम् ॥ कर्ता-आचार्य महाराज श्री विजयपन्नसरिजी (क्रमांक ४६-४७ थी चालु) (आर्यावृत्तम् ) एगसुयखंधो दस-ज्झयणाई बोहदाणनिउणाई ॥ जलधारासरिसाई, चियकम्ममलावणयणे य ॥ ४४ ॥ वीसज्झयणाइ तहा, सुयखंधदुगं विषागणामसुए । दुक्कयसुकयफलाई, कहापबंधेहि वुत्ताई ।। ४५ ॥ बत्तीससहस्साहिय-चोरासी लक्खजुत्तपयकोडी ॥ वेरग्गमयविवागे, णायव्यं पुठ्वसमयंमि ॥ ४६ ॥ के के जीवा दुहिणो, सेवित्ता पावकारणाइ गया ।। निरयाइगई दीहं, एवं पढमे सुयखंधे ॥ ४७ ॥ संसेविता धम्मे, जिणपण्णत्ते य दाणसीलाई ॥ सग्गइसुक्खं पत्ता, के के बिइए सुयक्खंधे ॥ ४८ ॥ दाणाइसाहगाणं, सुबाहुपमुहाण मव्वसढाणं ॥ चरियं कहियं सुहयं, सुहसिक्खादायगं विउलं ॥ ४९ ॥ अहकारणाइ चिच्चा, णिम्मलसुहकारणोहसंसेवा ॥ कायब्धा इय सिक्खा, मिला विधागोषसवणेणं ॥ ५० ॥ उपायपढमपुन्वे, पयकोडी दव्वनिभावतिगं ॥ उप्पत्तिव्ययधुव्वं, पवीणपुरिसेहिं पण्णत्तं ॥ ५१ ॥ अम्गायणीयपुग्वे, छण्णवइलक्खमाणयपयाई ॥ समभेयवीयसंखा, जुगप्पहाणेहि पण्णत्ता ॥ ५२ ॥ बीरियपवायपुग्वे, वीरियजुयधीरियाण सम्भावा ॥ सिहरिलक्खपयाई, विसालभाषत्थजुत्ताई ॥ ५३ ॥ सगभंगसियावाया, वरत्थिनत्थिप्पवायपुवम्मि ।। पयलक्खाई सट्ठी, विसिट्टतत्तत्थकलियाई ॥ ५४ ॥ णाणपवायपुग्वे, पण्णत्तो पंचणाणवित्थारो ।। एगणा पयकोडि, विसालणाणाविवक्खड़ा ॥ ५५ ॥ सच्चप्पधायपुग्वे, छहियाकोडी पयाण णायव्या । वायगवच्चसरूवं, कहिया सच्चाइभासाओ ॥ ५६ ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 40