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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
ક્રમાંક :
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[ भासि पत्र
• [१५ ४: सं ॥श्री उपाध्यायपदस्तोत्रम् ॥ कर्ता-आचार्य महाराज श्री विजयपन्नसरिजी (क्रमांक ४६-४७ थी चालु)
(आर्यावृत्तम् ) एगसुयखंधो दस-ज्झयणाई बोहदाणनिउणाई ॥ जलधारासरिसाई, चियकम्ममलावणयणे य ॥ ४४ ॥ वीसज्झयणाइ तहा, सुयखंधदुगं विषागणामसुए । दुक्कयसुकयफलाई, कहापबंधेहि वुत्ताई ।। ४५ ॥ बत्तीससहस्साहिय-चोरासी लक्खजुत्तपयकोडी ॥ वेरग्गमयविवागे, णायव्यं पुठ्वसमयंमि ॥ ४६ ॥ के के जीवा दुहिणो, सेवित्ता पावकारणाइ गया ।। निरयाइगई दीहं, एवं पढमे सुयखंधे ॥ ४७ ॥ संसेविता धम्मे, जिणपण्णत्ते य दाणसीलाई ॥ सग्गइसुक्खं पत्ता, के के बिइए सुयक्खंधे ॥ ४८ ॥ दाणाइसाहगाणं, सुबाहुपमुहाण मव्वसढाणं ॥ चरियं कहियं सुहयं, सुहसिक्खादायगं विउलं ॥ ४९ ॥ अहकारणाइ चिच्चा, णिम्मलसुहकारणोहसंसेवा ॥ कायब्धा इय सिक्खा, मिला विधागोषसवणेणं ॥ ५० ॥ उपायपढमपुन्वे, पयकोडी दव्वनिभावतिगं ॥ उप्पत्तिव्ययधुव्वं, पवीणपुरिसेहिं पण्णत्तं ॥ ५१ ॥ अम्गायणीयपुग्वे, छण्णवइलक्खमाणयपयाई ॥ समभेयवीयसंखा, जुगप्पहाणेहि पण्णत्ता ॥ ५२ ॥ बीरियपवायपुग्वे, वीरियजुयधीरियाण सम्भावा ॥ सिहरिलक्खपयाई, विसालभाषत्थजुत्ताई ॥ ५३ ॥ सगभंगसियावाया, वरत्थिनत्थिप्पवायपुवम्मि ।। पयलक्खाई सट्ठी, विसिट्टतत्तत्थकलियाई ॥ ५४ ॥ णाणपवायपुग्वे, पण्णत्तो पंचणाणवित्थारो ।। एगणा पयकोडि, विसालणाणाविवक्खड़ा ॥ ५५ ॥ सच्चप्पधायपुग्वे, छहियाकोडी पयाण णायव्या । वायगवच्चसरूवं, कहिया सच्चाइभासाओ ॥ ५६ ॥
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