Book Title: Jain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 216
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री महावीर-स्तव रचयिता श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर. सिद्धारथ-कुलकमल-दिवाकर, त्रिशला-कुक्षि-मानस-हंस । चरम जिनेश्वर महावीर हैं, मङ्गलमय त्रिभुवन अवतंस ।। यद्यपि उनमें अनुपम गुण गण हैं अनन्त नहीं कोई पार । पा सकता है, किन्तु भक्तिवश करता हूं मैं वही विचार । आत्मा में तन्मयता जिनकी थी अतीव उन्नत अविचल । परभावों को त्याग-भावना थी वैसी ही उग्र विमल ॥ विश्व-प्रेम भी ओतप्रोत था जिनके जीवन में पूरा । अद्वितीय हो सहनशील घन दूषण-गण जिनने चूरा ।। अहो अहो समता थी कैसी सहे कष्ट मरणान्त अनेक । अगर और कोई होता तो, निश्चय खो देता सुविवेक । पर जिनको था ज्ञान गर्भ से देहादिक अरु आतम का । विचलित वे कैसे होवें जो पद धरते परमातम का ।। नाममात्र के वीर नहीं थे विजय किए थे विकृत भाव । कर्म-शत्रु जीते, जिनका था इन्द्रादिक पर अमिट प्रभाव ।। जीवों के कल्याण-हेतु ही चैत्र शुक्ल तेरस शुभ दिन । जन्म हुआ था सबको सुखकर आज वही दिन पावन धन । For Private And Personal Use Only

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