Book Title: Jain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 217
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૧૯૯૩ www.kobatirth.org શ્રી મહાવીર-સ્ત : ५ : यज्ञ में पशु-हिंसा होती थी मानो उनमें नहीं प्राण | किया निवारण बता वीर ने जीव सभी हैं एक समान || माना था बस क्रिया काण्ड में लोगों ने सर्वस्व तभी । कहा वीर ने ज्ञान बिना की क्रिया अफल हैं सदा सभी ॥ : ६ : उच्च-नीचता तब लोगों में जाती पर ही निर्भर थी । स्त्रीजाति की दशा देश में पूर्ण रूप से बदतर श्री ॥ प्रकट किया तब महावीर ने उच्च-नीचता गुण-सबन्ध । स्त्रीजाति आदर्श बने ज्यों वैसे प्रभु ने किए प्रबन्ध ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : ७: वस्तु सुभावे धर्म सुलक्षण अतः साध्य सबको निज भाव । साधन बहुविध हैं मत झगडो पा करके यह उत्तम दाव || कर्म-विकार निजामत गुण से पूर्णरूप से करदो दूर | वीर प्रभु का भव्य बोध यह प्रगटाता है अदभुत नृर || : ८ : है अनन्त-धर्मात्मक सच्चा वस्तु मात्र का शुद्ध सुरूप । अनेकान्त से उसको देखो तब निश्चय होगा अनुरूप ॥ यह सिद्धांत उदार वीर का स्यादवाद " कहलाता है । सर्व दर्शनों में सर्वोपरि विजय परमपद पाता है । 66 : ९ : मानव-जीवन ही जिनका है उपकारी उपदेश विशेष । स्मरण - स्तव सुखदायक जिनका है यातें मैं करूं हमेश || अगर पूर्ण विकशित सद्गुण-पुष्पों की विशद विजय वरमाल | चीर प्रभु को सादर सविनय करूं समर्पण मैं समकाल || For Private And Personal Use Only ३३७

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