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॥ अहम् ।। ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥
जैन सा हि त्य सं शोध क
'पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सञ्चस्साणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरई ।' 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ; जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' 'दि8, सुयं, मयं, विण्णायं जं एत्थ परिकहिज्जइ ।'
-निर्ग्रन्थप्रवचन-आचारांगसूत्र ।
खंड १
[ अंक ३
गुजरातो लेख विभाग क्षेत्रादेश पट्टक.
आ शीर्षक नीचे आजे केटलाक क्षेत्रादेश पट्टको आपवामां आवे छे. घणा वांचको आ मथाळू वांची विचारमा पडशे के क्षेत्रादेश पट्टक' ए वळी शुं छे. अमे आहं संक्षेपमा तेनी समजण आपीए छीए.
जैन यतियोमाथी'जे जे यतियोना आचार-विचारो अने विधि-विधानो एकज सरखां होय तथा
१ अहिं अमे जे यतिशब्द वापर्यो छे ते, वर्तमानमा जे रूढी अनुसार संकुचित अर्थमां ए शब्द वपराय छे ते अर्थमा नथी वापर्यो, परंतु एना वाच्यार्थवाळा व्यापक अर्थमां वापर्यो छे. अहिं आपेला यति शब्दथी आजे कहेवाता यतियो अने मनाता साधु बन्ने प्रकारना वेशधारी त्यागियो समजवाना छे. कारण के यति अने साधु शब्दथी संबोधाता वर्गमां आजे जे खास अमुक प्रकारनी आचार-पालननी भिन्नता जोवामां आवे छे, ते फक्त लगभग छल्ला २५० वर्षथीज हयातीमां आवी छे. तेनी पहेलां ए भिन्नता न हती. विक्रमना १८ मा सैकाना प्रारम्भमां ए भिन्नतानो प्रादुर्भाव थयो छे. ए समय पहेलां जैन ( श्वेताम्बर साम्प्रदाय ) नो त्यागीवर्ग एक मात्र ‘यति ' नाम थीज ओळखातो हतो. जैन शास्त्रोप्रमाणे यति, भिक्षु, साधु, श्रमण ए बधा शब्दो एकज प्रकारना भावार्थवाळा होई एकज प्रकारना वर्गने आ शब्दोथी संबोधवामां आवे छे. वर्तमानमा जे प्रकारनी वर्गभिन्नता दृष्टिगोचर थाय छे तेना प्रादुर्भावनो इतिहास बहु जाणवा जेवो छे; परंतु आ स्थळे तेनो प्रसंग न होवाथी, बीजा कोई प्रसंगे ते लखवा इच्छा छे.
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