Book Title: Jain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Author(s): Sima Rani Sharma
Publisher: Piyush Bharati Bijnaur

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Page 222
________________ शुक्ल ध्यान (२०३) १-आस्थवद्वारापाय : इस अनुप्रेक्षा में साधक अनंत भव परम्परा का चिन्तवन करता है। वह मिथ्यात्व, अविरति और कर्मबन्ध के हेतु अर्थात आस्त्रव द्वार कौन-कौन से हैं और उनके सेवन करने से इस लोक में और परलोक में कौन-कौन से दुखों का जीव को सामना करना पड़ता है इस विषय का चिन्तन करता है। २-संसारासुखानुभव : इसमें साधक संसार के अशुभ रूप का गहराई से विचार करता है । वह मोचता है प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करता है और यह क्रम चलता ही रहता है और इसी शरीर ग्रहण करने व छोड़ने को संसार कहते हैं, जो नरकादि चतुर्गतिस्वरूप है इनमें से किसी में भी सुख नहीं है, क्योंकि अभीष्ट वस्तु को प्राप्त कर लेने पर सुख की प्राप्ति होती है लेकिन वह सुख थोड़े ही समय के लिए होता है। जो सम्यग्दष्टि होते हैं वे किसी भी अवस्था के छ टने पर दुखी नहीं होते । इस प्रकार से संसार की असारता या दुःखरूपता का चिन्तन करना ही संसारासुखानुभव अनुप्रेक्षा है । ३-भवसन्तान की अनन्तता :___संसार के आवागमन के कारण मिथ्यात्व, राग, द्वेष एवं मोह आदि माने गये हैं। इनमें भी मिथ्यात्व को प्रमुख कारण माना गया है क्योंकि जब तक जीव मिथ्यात्व दष्टि वाला रहता है तब तक उसके लिए यह संसार अनन्त बना रहता है और जिसने मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त कर ली है वह प्राणी अनन्त संसारी नहीं रहता अपित अधिक से अधिक अर्धपुद्गल प्रमाण संसार वाला हो जाता है। इस प्रकार का चिन्तन इस तीसरी अनुप्रेक्षा में किया जाता है। ४-वस्तु विपरिणामानुप्रेक्षा : इस अनुप्रक्षा में साधक वस्तुओं के परिणमनशील स्वभाव अर्थात् वस्तुओं के परिवर्तन के स्वभाव पर चिन्तन करता है। वह विचार करता है कि सभी वस्तुयें प्रतिपल प्रतिक्षम परिवर्तित होती रहती हैं,

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