Book Title: Jain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Author(s): Sima Rani Sharma
Publisher: Piyush Bharati Bijnaur

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Page 258
________________ (२३) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन से दूसरे जन्म के चक्कर में फँसाये रखती है इस यन्त्रणा से छुटकारा पा लेना है । बौद्ध दर्शन में मोक्ष या कैवल्व को ही निर्वाण की उपाधि दी गई है वहाँ कर्मों को मनुष्य की छाया के समान बतलाते हुए संसार की जड़ कहा है । क्योंकि कर्मों से विपाक प्रवर्तित होता है और स्वयं विपाक कर्म सम्भव है और कर्म से ही संसार चक्र प्रारम्भ होता है । बौद्ध योग के अनुसार निर्वाण एक आध्यात्मिक अनुभव है, जिसकी प्राप्ति के लिए चित्त की शुद्धि बहुत जरूरी है क्योंकि चित्त की शुद्धि ही निर्वाण कहलाती है। जब साधक निर्वाण की अवस्था में पहुँच जाता है तत्र उसके चित्त में मल नहीं रहता बौर यही कारण है कि जब योगी इस अवस्था में पहुँच जाता है तब उसे किसी की भी आकांक्षा नहीं रहती और उसे संसार में लौटने का कोई भय नहीं रहता वह परम सुख को प्राप्त कर लेता है । - मिलिन्दप्रश्न के अनुसार निर्वाण का स्वरूप इस प्रकार से कहा गया है कि तृष्णा के निरोध से उपादान का, उपादान के निरोध से बूढ़ा होना, मरना, शोक, दुःख, बेचैनो, परेशानी आदि सभी प्रकार के दुःख समाप्त हो जाते हैं । * तृष्णा, राग-द्वेष, मोह आदि संसार की जड़ तथा योगी के मन को चंचल बनाने के कारण हैं, जिनसे विविध प्रकार के कर्मों का आस्स्रव होता है । जब योगी राग-द्वेष मोह आदि का नाश कर देता है तो यही अवस्था निर्वाण कहलाती है । निर्वाण की अवस्था में दुःख लेशमात्र भी नहीं रहता 4, बल्कि वह स्थिति आनन्द की या सुख को पराकाष्ठा में पहुँच जाती . .... -- + मिलिन्द प्रश्न ३/२/१६ कम्मा विपाका वतन्ति विपाको कम्म सम्भवो । कम्मा पुनभवो होति एवं लोको पवत्ततीति ॥ (विसुद्धिमग्ग) विसुद्धीति सम्बलविरहितं अच्चन्तपरिसुद्ध निब्बाण वेदितव्यं । ( वही १ / १५ ) निब्बानं परमं सुखं । ( धम्मपद १५ / ८ ) * मिलिन्द प्रश्न, पृ० ८५ छेत्वा रागञ्च दोसञ्च ततो निब्बानामेहिसि । ( धम्मपद २५ / १०) 4 मिलिन्द प्रश्न, पृ० ३८६

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