Book Title: Jain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Author(s): Sima Rani Sharma
Publisher: Piyush Bharati Bijnaur

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Page 270
________________ (२५१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन मोह क्षय : मोह को सब कर्मो का राजा कहा गया है क्योंकि मोह की स्थिति सबसे उत्कृष्ट बतलायी गयी है। जिस प्रकार राजा पर विजय प्राप्त होने पर सेना अपने आप विजित हो जाती है उसी प्रकार मोह के पराजित हो जाने पर समस्त कर्मो की सेना अपने आप पराजित हो जाती है। आचार्य पूज्यपाद ने मोह की शक्ति के विषय में कहा है मोहेन संवृत्तं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानाम् यथा मदन कोद्रवैः ।। ___ मोह से ढका हुआ ज्ञान स्वभाव की उपलब्धि नहीं कर सकता है । जिस प्रकार मदन कोद्रव का सेवन कर कोई व्यक्ति मदमत्त हो जाता है। ध्यान के लिए मोह दूर होना आवश्यक है। मोह का आवरण दूर हो जाने पर केवल ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है जो जीवनमुक्त जैसी स्थिति है । मोह को गाढ़ अन्धकार की उपमा दी गयी है, जिस प्रकार गाढ़ अन्धकार में पदार्थो का अवलोकन नहीं होता उसी प्रकार मोह के कारण पदार्थ का सम्यक अवलोकन नहीं हो पाता है। अतः जैन धर्म में स्थान-स्थान पर मोह को दूर करने का उपदेश दिया गया है। अतीन्द्रिय आनन्द की उपलब्धि : संसार में सभी व्यक्ति सुख अथवा आनन्द की उपलब्धि करना चाहते हैं। यह आनन्द इन्द्रिय सुख में नहीं है क्योंकि वह नष्ट होने वाला है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है___ सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विषमं। जं इन्दिए हि लद्धं तं सव्वं दुक्खमेव तहा। जो पर की अपेक्षा रखता है, बाधा सहित है, नष्ट हो जाने वाला है, बन्ध का कारण है और विषम है ऐसा इन्द्रि यजन्य सुख वास्तव में दुःख ही है। योगीजन इस ऐन्द्रियिक सुख का परित्याग कर अतीन्द्रिय सुख की उपलब्धि करना चाहते हैं । ध्यान के द्वारा अतीन्द्रिय सुख की

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