Book Title: Jain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Author(s): Sima Rani Sharma
Publisher: Piyush Bharati Bijnaur

View full book text
Previous | Next

Page 254
________________ [२३५] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन १६-क्षीरमधुसपिरासव-लब्धि : क्षीर का अर्थ है दुध, मधु का शहद और सपि का घी, अर्थात इस लब्धि के घारक योगी के वचन दूध के समान मधुर, शहद के समान मीठे और घी के समान स्निग्ध अर्थात सुनने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रिय लगते हैं । २०-कोष्ठक-लब्धि :: ____ इस लब्धि का धारक मुनि गुरुमुख से एक बार ही स्मृत, सुने हुए एवं पठित ज्ञान को कोष्ठागार में सुरक्षित अनाज की भाँति सुरक्षित कर लेता है तथा चिरकाल तक भी उन वचनों को नहीं भूलता। २१-पदानुसारिणो-लब्धि : इस लब्धि का स्वामी योगी एक पद को सुनकर ही उसके आगेपीछे के पदों को जान लेता है। २२-बीजबुद्धि-लब्धि : सुने हुए ग्रन्थ का एक बीजाक्षर जानने से ही अश्रुत पद एवं अर्थो को जान लेना ही उस बीज बुद्धि-लब्धि का लक्षण है। २३-तेजोलब्धि : तेजोलब्धि से सम्पन्न साधक का तैजस शरीर इतना तीव्र एवं बलशाली होता है कि वह अपने शरीर से तेजो लेश्या निकाल सकता है । दूरस्थ, सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थों को भस्म करने की शक्ति तेजोलब्धि कहलाती है। २४-आहारक लब्धि: यह लब्धि पूर्वधर साधकों को प्राप्त होता है। जिन शासन की प्रभावना के लिए पराजय के क्षणों में अपने शरीर से अन्य शरीर का निर्माण करके श्र तकेवली या तीर्थकर के पास भेजकर तत्काल शंका का समाधान पाने की शक्ति को आहारक लब्धि कहा गया है। २५-शीतललेश्या लब्धि : __ अत्यन्त करुणा भाव से प्रेरित होकर तेजो लेश्या के कारण जलते हुए प्राणियों के प्रति करुणाशील होकर शीतल लेश्या को छोडना और

Loading...

Page Navigation
1 ... 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278