Book Title: Jain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Author(s): Sima Rani Sharma
Publisher: Piyush Bharati Bijnaur

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Page 233
________________ [२१४] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ध्यान को करने से साधक ज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने के कारण सर्वज्ञ हो जाता है, तब उसे केवली कहा जाता है। वे ही केवली जब अन्तमुहर्त मात्र आयु के शेष रहने पर मुक्ति गमन के समय कुछ योग निरोध कर चुकने वाले सूक्ष्म काय की क्रिया से जो ध्यान करते हैं, वह सूक्ष्म क्रिया-राप्रतिपाती शुक्ल ध्यान कहलाता है। __ इस ध्यान में सूक्ष्मकाययोग को अवस्था कुछ क्षण रहने के बाद बन्द हो जाती है क्योकि आत्म प्रदेशों को सर्वथा स्थिर निश्चल करने वाला अत्यन्त प्रवर्धमान पुरूषार्थ दादर सूक्ष्म मनोयोग वचनयोग तथा चादर काययोग का निरोध करता है और सूक्ष्म काययोग को भी बन्द करने के लिए उद्यत होता है और इस काययोग को शान्त कर देता है । A इस ध्यान के द्वारा योगी का मोक्ष प्राप्ति का समय नजदीक → (क) निव्वाणगमणकाले केविलणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियट्टि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। (ध्यान शतक ८१) (ख) एवमेकत्व वितर्कशुक्लध्यानवैश्वानरनिर्दग्धवातिकर्मेन्धन...... सयदान्तमूहर्त शेषायुष्क: "तदा सर्ववाड्.मनसयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानमास्कन्दितुमर्हतीति ।। ....... समीकृतस्थितिशेष कर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान घ्यायति । (सर्वार्थ सिद्धि ६/४४/४५६/८) A (क) काययोगे स्थिति कृत्वा बादरेऽचिन्त्यचेष्टितः । सक्ष्मीकरोति वाकचित्तयोगयुग्मं स बादरम् ॥ काययोगं ततस्त्यक्त्वा स्थितिमासाद्य तद्वये। स सूक्ष्मीकुरुते पश्चात् काययोगं च बादरम् ।। (ज्ञानार्णव ४२/४८-४६) (ख) योगशास्त्र ११/५३-५५

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