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( 67 ) वस्तु का स्वरूप सर्वात्मक नहीं है, इसलिए स्व-रूप से उसकी विधि और पर-०५ से उसका निषेध प्राप्त होता है।
उत्पाद और व्यय का क्रम चलता रहता है । इसलिए उत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से पस्तु की विधि और अनुत्पन्न या विगत पर्याय की अपेक्षा से उसका निषेध किया जाता है।
पादरी निकोलस के अनुसार इन्द्रिय-प्रत्यक्ष द्वारा होने वाला वस्तु का सवेदन विधानात्मक होता है, निषेधात्मक नहीं होता। अनुमान विध्यात्मक और निषेधात्मक
दोनो होता है । स्याद्वाद का सिद्धान्त यह है कि विधि और निषेध वस्तुगत धर्म हैं । हम अग्नि का प्रत्यक्ष करते हैं, इसलिए उसकी विधि का अर्थ होता है कि अमुक देश में अग्नि है। हम धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान करते हैं तब साधक-हेतु मिलने पर अमुक दे। मे उसकी विधि और वाधक-हेतु मिलने पर उसका निषेध करते हैं किन्तु स्यद्वाद का विधि-निषेध वस्तु के देशकाल से संबद्ध नही है। वह उसके स्वरूप-निर्धारण से सबद्ध है । अग्नि जब कभी और जहा-कही भी होती है वह अपने स्वरूप से होती है, इसलिए उसकी विधि उसके घटको पर निर्भर है और उसका निषेध उन तत्वो पर निर्भर है जो उसके घटक नही हैं । वस्तु मे विधि और निषेध ये दोनो पर्याय एक साथ होते हैं । विधि-पर्याय होता है इसलिए वह अपने स्वरू५ मे रहती है और निषेध-पर्याय होता है इसलिए उसका स्वरूप दूसरो से श्राकान्त नही होता । यही वस्तु का वस्तुत्व है । इस स्वरूपगत विशेषता की सूचना 'स्यात्' शब्द देता है।
स्याद्वाद को विभज्यवाद' और 'भजनावाद'' भी कहा जाता है। भगवान महावीर ने कहा -मुनि विभज्यवाद का प्रयोग करें, तत्व-निरूपण मे जितने विकल्प सभव हो उन सब विकल्पो का प्रयोग कर, एकांगी दृष्टि से तत्व का निरूपण न करे। महावीर स्वयं भी अनेक प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद की पद्धति से देते थे। जयन्ती ने पूछा भते । सोना अच्छा है या जागना अच्छा है।
महावीर ने कहा 'जयन्ती | कुछ जीवो का सोना अच्छा है और कुछ जीवो का जागना अच्छा है।'
5 तत्वार्थवात्तिक, 1/6
स्वपरामोपादानापोहनव्यवस्थापाच हि वस्तुनो वस्तुत्वम् । 6 सूयगडो, 1114122 : 7 सायपाहुड, भाग, 1, पृ०० 281 ।