Book Title: Jain Nyaya ka Vikas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Nathmal Muni

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Page 163
________________ ( 147 ) 1 अकलक (ई 8) इनका जन्म कर्णाटक प्रान्त के मान्यखेट नगरी के राजा शुभतु ग ( राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णराज प्रथम ) के मन्त्री पुरुषोत्तम ( अ५. नाम लहन या लघुअ०१) के घर हुआ था ।। इनकी माता का नाम जिनमती था। 'भट्ट' इनका पद था । इनके भाई का नाम निकलक था । एक बार दोनो भाई बौद्ध तर्कशास्त्र का अभ्यास करने के लिए एक वीद म० मे रहने लगे। वही इनके जैन होने का पता लगा गया । निष्कलक मारे गए। अकलक बच निकले । उन्होने आचार्य पद प्राप्तकर कलिंग नरेश हिमशीतल की सभा मे बौद्धो से वाद-विवाद किया। विरोधी पक्ष पाले एक घडे मे तारादेवी की स्थापना करते और उसके प्रभाव मे वाद मे अजेय बन जाते । अकलक ने यह रहस्य जान लिया। उन्होने अपने शासन देवता की आराधना की और घडे को फोड वौद्धो को वाद मे पराजित किया। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्य ये हैं । तत्त्वार्थ राजपातिक समाष्य । 2 अष्टशती समन्तभद्रकृत प्राप्तमीमामा की व्याख्या । लधीयस्त्रय - इसमे प्रमाण, नय और प्रवचन ये तीन प्रकरण हैं । न्यायविनिश्चय प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम इन तीन प्रमाणो का विवेचन । प्रमाणमग्रह प्रमाण सम्बन्धी विभिन्न विषयो की चर्चा प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ । 6 मिद्धिविनिश्चय प्रमाण, नय आदि विषयो की विवेचना से युक्त । 7 न्यायचूलिका। ___ इन्हे जैन न्याय का प्रवर्तक कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इनके समय मे ही न्याय शास्त्र को व्यवस्थित रूप मिला। उत्तरकालीन ग्रन्यकार अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दि, विद्यानद, हेमचन्द्र, यशोविजय ग्रादि सभी प्राचार्यों ने अकलक द्वारा प्रस्थापित जैन न्याय की पद्धति का अनुसरण या विस्तार किया है । अष्टशती पर विद्यानन्द ने, लघीयस्त्रय पर अभय चन्द्र और प्रभाचन्द्र ने, न्यायविनिश्चय पर पादिराज ने तथा प्रमाणसग्रह और सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्य ने विस्तृत व्याख्याए लिखी। देवचन्द्रकृत कन्नड भाषा के 'राजवलीकये' नामक ग्रन्थ मे इनके पिता का नाम जिनदास प्राह्मण बतलाया है।

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