Book Title: Jain Nyaya ka Vikas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Nathmal Muni

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Page 185
________________ प्रत्यक्ष (विज्ञान) प्रमाण प्रमय ( 169 ) इन्द्रियो के द्वारा अजित अनुभव । सम्यग्ज्ञान, यथार्यज्ञान । सशय और विपर्यय से रहित भाव से पदार्थ का परिच्छेद करना । प्रमाण का साध्य । न्याय के चार अगो मे से एक । अभ्युपगम, सिद्धान्त । - योगिकजान । भविष्य मे घटित होने वाली घटना का पूर्वाभास । ग्राह्य वस्तु से सपृक्त होकर ही अपने विषय को जानने वाली इन्द्रिया। वे चार हैं स्पर्शन, रसन, ब्राण और श्रोत्र। प्रस्थान प्रातिभनान प्राप्यकारी इन्द्रिया प्रामाण्य -- स्वत प्रामाण्य परत प्रामाण्य भग भजनावाद भाषा वर्गणा युक्ति योगिप्रत्यक्ष વસ્તુવાવી દર્શન जानने के साथ-साथ यह जानना यथार्थ है' ऐसा स्वप्रत्यथित ज्ञान । जानने के साथ-साथ यह जानना यथार्य है' ऐसा सवादक प्रमाण से जानना । विकल्प विकल्पवाद । भापा के रूप मे परिणत होने योग्य पुद्गलो का समूह । न्याय-विद्या । महर्षि चरक द्वारा स्वीकृत एक प्रमाण । बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष का एक भेद । वस्तु की सत्ता को वास्तविक मानने वाला, वस्तु के अस्तित्व को जान से भिन्न मानने वाला। पाच्य-वाचक का सवध । वाच्य जो कहा जा सके, वाचक - जिसके द्वारा कहा जाए। हेतु का विपक्ष मे होना। अतत् मे तत् का अध्यवसाय । जो जैसा नही है उसको वैसा जानन।। विकल्पवाद अर्थात् स्यादवाद । दीर्घकालीन पर्याय, जीवनव्यापी पर्याय । इद्रिय और अर्थ का सबध-वोध । साध्य के अभाव मे साधन का अभाव । वाच्यवाचकभाव विपक्षमत्त्व विपर्यय विभज्यवाद व्यजन पर्याय व्यजनावग्रह થતિ રેવ

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