Book Title: Jain Nyaya ka Vikas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Nathmal Muni

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Page 143
________________ ( 127 ) 'इष्ट तत्व को देखने वाला ही हमारे लिए प्रमाण है, फिर वह दूर को देखे या न देखे । यदि दूरदर्शी ही प्रमाण हो तो आइए, हम गीधी की उपासना करें क्योकि वे बहुत दूर तक देख लेते है।' सर्वज्ञत्व की मीमासा और उस पर किए गए व्यगो का जैन आचार्यों ने सटीक उत्तर दिया है और लगभग दो हजार वर्ष की लम्बी अवधि से सर्वज्ञत्व का निरत र समर्थन किया है। जैन तर्क-परम्परा की देय के साथ-साथ प्रादेय की चर्चा करना भी अप्रासगिक नही होगा। जन ताकिको ने अपनी समसामयिक ताकिक परम्पराओ से कुछ लिया भी है । अनुमान के निरूपण मे उन्होंने बौद्ध और नैयायिक तक५९परा का अनुसरण किया है। उसमे अपना परिमार्जन और परिष्कार किया है तथा उसे जन परम्परा के अनुरूप ढाला है। वौद्धो ने हेतु का रूप्य लक्षण माना है, किन्तु जैन-ताकिको ने उल्लेखनीय परिष्कार किया है। हेतु का अन्यथाअनुपपत्ति लक्षण मान कर हेतु के लक्षण मे एक विलक्षणता प्रदर्शित की है। हेतु के चार प्रकार 1 विधि-साधक विधि हेतु । 2 निषेध-साधक विधि हेतु । 3 निषेध-साधक निषेध हेतु । 4 विधि-साधक निषेध हेतु । की स्वीकृति भी सर्वथा मौलिक है । उक्त कुछ निदर्शनो से हम समझ सकते हैं कि भारतीय चिन्तन मे कोई अवरोध नही रहा है। दूसरे के चिन्तन का अपला५ ही करना चाहिए और अपनी मान्यता की पुष्टि ही करनी चाहिए ऐसी रूढ धारणा भी नही रही है । श्रादान और प्रदान की परम्परा प्रचलित रही है । हम सपूर्ण भारतीय वाडमय मे इसका दर्शन कर सकते हैं। दर्शन और प्रमाण-शास्त्र : नई समावनाए प्रमाणशास्त्रीय चर्चा के उपसहार मे कुछ नई संभावनाश्रो पर ष्टिपात करना असामयिक नही होगा। इसमे कोई सदेह नही कि प्रमाण-०यवस्था या न्यायशास्त्र की विकसित अवस्था ने दर्शन का अभिन्न अंग बनने की प्रतिष्ठा प्राप्त की है। यह भी असदिन है कि उसने दर्शन की धारा को अवरुद्ध किया है, उसे अतीत की व्याख्या मे सीमित किया है। दार्शनिको की अधिकारी शक्ति तक-मीमासा मे लगने लगी । फलत निरीक्षण गौण हो गया और तर्क प्रधान । सूक्ष्म निरीक्षण के

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