Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 08
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
जी, तव ते चतुरा हो चार ॥ सु० ॥ १२ ॥ वडतलें वडतलें याची उनी रही होजी, घहेरी जेहनी हो बाय ॥ टप टप जल बिंडु चूवे होजी, वाये शीतल वाय ॥ सु० ॥ १३ ॥ वात करे बात करे उनीथकी होजी, मानिनी हसि हसि तेह || एहवे एहवे हो महिपाल पूतथी होजी, खाव्यो तिहां ससनेह ॥ सु० ॥ १४ ॥ जातां जातां हो क्षेत्रनणी तिहां होजी, मार्गे जलदने जोर ॥ ते पण ते पण वडतरुने तलें होजी, बानो रह्यो एक ठोर ॥ सु० ॥ १५ ॥ उथें उथें रहीने सांभले होजी, ते वदूध रनी रे वात || विजन विजन लहीने निराकुली होजी, पहेली बोले निश्चिंत ॥ सु० ॥ १६ ॥ अवसर अवसर याज मल्यो जलो होजी, कहो मन जे दुवे इष्ट || माही माही मापण केलवी होजी, वढूार वोले कनिष्ट ॥ सु० ॥ १७ ॥ सुपियें सुलियें हो एवं संसारमां होजी, वाडीने पण दुवे कान || न घटे न घटे स्वनावनुं नांखतुं होजी, मुफ मनमांहे ए शान ॥ ० ॥ १० ॥ यतः ॥ दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च ॥ संचरति महाधूर्त्ताः, वटे वररुचिर्यथा ॥ ४ ॥ पूर्वदाल || बोले बोले हो चंद्रवती तिहां होनी, नहिं इहां कोइनो प्रचार ॥ गोष्टि गोष्टि करीजें दिल खोलीने होजी, मुकने हर्ष व्यपार ॥ सु० ॥ १७ ॥ कहे तब कहे तब शीलवती सती होजी, कहो अनुक्रमें तुमें एह ॥ वारक वारक या वे माहरे होजी, बात कहिश ससनेह ॥ सु० ॥ २० ॥ पहेली पहेली कहे मन माहरे होजी, घृत ताव्युं ततकाल ॥ जो जले जो जले प्रि चट कप्णमां होजी, तो जमुं थइ उजमाल ॥ सु० ॥ २१ ॥ वली तेम वली तेम शिराववी जली होजी, सुंदर दहिंने संयोग || मालती मलती हो घ्याम्रकचूरिशुं होजी, जोजन ए देवयोग ॥ सु० ॥ २२ ॥ वीजी बीजी हो कीर्तिमती कहे होजी, सुलो मुऊ मननी रे याश || बहेनी बनी हो होंश हिडे रहे होजी, कहियें कोने एजास ||सु०॥ २३ ॥ साव साव दूध खीर खांशुं होजी, मांगा सुंदर जोडि ॥ सरहां सरहां घृत शाल दालगुं होजी, मुफ जीमणनो रे कोड ॥ सु० ॥ २४ ॥ त्रीजी त्रीजी हो शांतिमती कहे होजी, मुऊ मोदकनी रे धारा ॥ व्यवर व्यवर बली सुखनहिका हो जी, मुफ मन जावे मिठाश || सु० ॥ २५ ॥ वतुं वन तुं हो शीलवती वदे होनी, नहिं मुफ जोजन प्रेम ॥ खाधुं खाधुं हो

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