Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 08
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 456
________________ 46 जैनकथा रत्नकोप नाग आग्मो. लोकनी लीला तेणें वरी // पद पाम्या माहानंद अनुक्रमें, धन्य ते जे एहवा मुनि नमे // ए॥ हवे निसुयो उपनय ए सही, अयंतरनी वातो कही // कुल उत्तम मानव नव लह्यो, नविजीव वणिकनो सुत / कह्यो // 1 // हितकारक श्रीगुरु जागीये, ते तेहनो तात वखाणीयें / / . श्रमादि जनित प्रोत्साहना, ते वेश्यावचन निदाननां // 11 // पुण्य लक्ष्मी उपचयकारिणी, धागल पण नवजल तारिणी // मूलभव्य चा रित्र गुरुयें दियु, ते राखे ठेकाणे सहजीयु // 12 // पुर वायु अनीतिनुं जे तदा, गुरु सारण वारण दे मुदा // संयम प्रवहण ऊपम लही, जब सायर तरवो ये सही // 13 // कर्णधारक तुल्य विमलमना, साधर्मिक साथ तपोधना // नवितव्य नियोगान जागीयें, प्रमाद जे हयमां या एपीयें // 14 // पुर पाम्युं अनीतिना नामर्नु, कुप्रवृत्तितणुं जे प्रवर्तनु / मोहनूपति नाम अन्यायीयो, पुरमा सघ जे गायो॥ 15 // जांमग्राहि वणिक सम नांखिया, चार उष्ट कपाय ते राखिया // हरे इव्यविवेक ते पापीया, एवं लोक घणा संतापीया // 16 // विषयाशा हो वेश्या सम कही, तेहने जाय मले जीवडो सही // कर्मपरिणति अक्का यति जली, शुनमतिदायक कृत पूर्वती // 17 // उल्नंघी अगुन सवि ते हथी, प्राणी मलियो निजगेहथी // धर्ममारगमा फरि धावियो, जन्म नमिपरें सुख पामियो // 17 // एह उपनय दिलमांहे धारीयें, गुण श्रादरी अवगुण वारिये / कीजे धर्मनुं कारिज धसमसी, धन्य वात ए जेहने मन वसी // 1 // चक्रायुध गणधर उपदिस्यो, श्रीसंघतागा दिलमां वस्यो ॥ए उपनय दिलमा राखजो, नवि अनुनव स्वादने चाखजो // 20 // बावनमी ढाल ठके सुपी, अंतर उपनय दारव्यो मुनि // कहे गम विजय सदु सांजलो,नवि धर्म करो तजि आमलो // 21 // 201MIGG // ॥दोहा॥ // दीधी गणधर देशना, सामाचारी सार // साधुने सवि दाखवी, जेहथी जवनिस्तार // 1 // यिविरकल्प प्रकाशियो, श्रुत केवली जग वान // श्रीचक्रायुध गणधरु, नविकज सूर समान // 2 // प्रतु विचरे पु हवीतले, पद धरता कज हेम // सुर नर कोडें परिवरखा, बरत्युं जगमा हम // 3 // केक दीदा थादरे, के ग्रहे श्रावकधर्म // कपरिणा

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