Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 03
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 344
________________ ३३४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. हा स्वामी ! तमें महारा धर्माचार्य बो, तमाराथी हुँ धर्म पाम्यो बुं. हवे आचार्य लोकोनी आगल पोतानुं वृत्तांत मांझी कह्यु, ते सांजली ने घणां लोक संवेग पाम्यां. राजायें पण धर्मदेशना सांजली संवेग पाम्यो थको पोताना पुत्रने राजपाटें थापी अमारी पट्टहोद्घोषणा करावी दीन जनोने दान आपी दीक्षा लीधी. मंत्रितिलक प्रधाने पण राजानी साथें दी दा लीधी. राजायें पडह वजडाव्यो के महारी साथै जे दीक्षा लेशे, तेना कुटुंबनी चिंता महारो पुत्र करशे. एवं करवाथी घणे लोकें दीदा लीधी. राजा ते सर्वनी दीदानो संघवी थयो. राजा दीक्षा पाली तपस्या करी अंतें अनशन पादरी सर्वार्थसिविमाने स्वेवायें सुख जोगवतो थयो. मं वितिलक समाधि मरण करी सौधर्म देवलोकें सौधर्मेनो मंत्री थयो. अ नुक्रमें बेदु जण मोदपद पामशे. ए चार यत्नाने विषे मंत्रितलक प्रधान तथा नलराजानां दृष्टांत कह्यां. इति महोपाध्यायश्रीशांतिचंगणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचिते श्रीसम्यक्त्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्वसप्ततिकाबालावबोधेपट्यत्नास्वरूपनि रूपणनामा नवमोऽधिकारः सपूर्णः ॥ ए॥ हवे बागारनो दशमो अधिकार कहे . ॥ आगारा अववाया, बबिह कीरति नंग ररकहा ॥ राय गणं बल सुर क, म्म गुरुनिग्गह वित्तिकंतारं ॥५१॥ अर्थः-(यागारा के) जे आगार ते (अववाया के ) अपवाद कहीयें. जे कारणमाटें श्रीजिन शासन जे , ते एकलाज उत्सर्ग मारग अंगीकार करवे चाले नहीं. ते माटे अपवाद कह्यो ॥ यतः॥ उवसग्गसु अकिंचि, किंचिअपवायत्वं नवेसु तं ॥ तज्नयसुत्तं किंचि, सुत्तस्स गमा मुणेयवा ॥१॥ तेमाटे जिहां उत्स गै घटमान होय, तिहां उत्सर्ग आदरवो. अने जिहां अपवाद घटे तिहां अपवाद आदरवो. श्रीजिनशासनरूप प्रासादनेविषे उत्सर्ग जे , ते मूल बारणुं . अने अपवाद जे जे, ते नासता जीवने बारी ने नत्सर्ग जे , ते यथारख्यात झान, दर्शन, चारित्रियानो निरतिचार मार्ग ले. ते दमणाने कालें संघयण, तिबल रहितपणे करी सेवन करीन शकीयें तेमाटे अपवाद सेवन करी पडीयालोयण प्रायश्चित्त लश्सम्यक्त्व नियमादिक शुरू करवा.

Loading...

Page Navigation
1 ... 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397